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परिधि में सम्मिलित कर लिया। इससे प्राचीन जैन परम्परा को कोई क्षति नहीं हुई तथा विपक्षियों के मुंह बन्द हो गये। प्राचीन जैन परम्परा इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहती थी और इतर दार्शनिक उसे प्रत्यक्ष कहते थे किन्तु उसे सांव्यवहारिक अर्थात् लौकिक प्रत्यक्ष नाम दे देने से जैन परम्परा को कोई क्षति नहीं हुई। वस्तुतः नाम के कारण ही विवाद था, प्रत्यक्ष नाम दे देने से वह विवाद समाप्त हो गया। _स्मृति आदि प्रमाणों को अकलंक देव ने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में भी अन्तर्भूत किया और परोक्ष श्रुतज्ञान में भी जब तक इनमें शब्द का संसर्ग न हो तब तक तो इन्हें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना जायगा। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भी दो भेद किये गये है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष। इन्द्रिय प्रत्यक्ष में मतिज्ञान और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष में स्मृति आदि आते हैं क्योंकि उनमें मन का व्यापार ही प्रधान होता है। परन्तु यदि ये स्मृति आदि शब्द का ससर्ग लिए हुए हों तो उनका अन्तर्भाव परोक्ष श्रुतज्ञान में किया गया है। अकलंक ने जो स्मृति आदि प्रमाणो को अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष बतलाया उसके मूल में उनकी केवल एक ही दृष्टि थी वह थी सूत्रकार का उन्हें मति से अनर्थान्तर बतलाना अतः जब मतिज्ञान को इन्द्रिय प्रत्यक्ष माना गया तो उसके सहयोगी स्मृति आदि को प्रत्यक्ष के अन्तर्गत लेना ही चाहिए।
अकलंक देव के इस मत को प्रायः सभी ने स्वीकार किया किन्तु अकलंक देव के ही ग्रन्थों के प्रमुख टीकाकर अनन्तवीर्य आरैर विद्यानन्द ने स्मृति आदि को अतिन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं माना है। विद्यानन्द ने प्रमाण परीक्षा में अकलंक के मतानुसार प्रत्यक्ष के इन्द्रिय प्रत्यक्ष अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष भेद तो किये किन्तु अवग्रह से लेकर धारणा पर्यन्त ज्ञान को एक देश स्पष्ट होने के कारण इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष माना तथा स्मृति आदि को परोक्ष ही माना। उत्तरकालीन जैन तार्किकों ने भी इन्द्रिय जन्य ज्ञान को तो एक मत से सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मानना स्वीकार किया किन्तु स्मृति आदि को किसी ने भी अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं माना। अकलंक देव ने उमास्वामी के मत की रक्षा के लिए जो प्रयत्न किया था वह सफल तो नहीं हो सका किन्तु उनकी