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अनेकान्त-56/3-4
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भव्य ने प्रश्न किया । तत्त्वों के जानने के उपाय क्या हैं? मुनिराज ने
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कहा - ' प्रमाण नयैरधिगमः ।”
अर्थात् प्रमाण और नयों से पदार्थो का ज्ञान होता है । इस प्रकार देखें तो प्रमाण और नय मोक्ष के साधन हैं ।
प्रमाण की परिभाषा क्या हैं, और प्रमाणों की संख्या कितनी है इस विषय पर भारतीय दर्शनों में विस्तृत गवेषणा उपलब्ध होती है। भारतीय दर्शनों में और जैन न्याय ग्रन्थों में इसी कारण खण्डन - मण्डन की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है । स्वमत या स्वपक्ष का मण्डन और परपक्ष या परमत का खण्डन दर्शन के ग्रन्थों का मुख्य विषय रहा है ।
प्रमाण का स्वरूप :- प्रमाण शब्द का सामान्यतया व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है'प्रमीयते येन स प्रमाणम्' अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों का ज्ञान हो उस द्वार का नाम प्रमाण हैं । दूसरे शब्दों में जो प्रमाण का साधकतम करण हो वह प्रमाण है। तर्कभाषा में कहा गया है- 'प्रमाकरणं प्रमाणम्', कि पुनः करणम् ? साधकतमं करणम् । अतिशयतं साधकं साधकतमं प्रकृष्टकारणमित्यर्थः।”
इस सामान्य निर्वचन में कोई विवाद न होने पर भी उस द्वार में विवाद हैं। नैयायिक आदि प्रमा में साधकतम इन्द्रिय और सन्निकर्ष को मानते हैं जबकि जैन और बौद्ध ज्ञान को ही प्रमा में साधकतम कहते हैं । जैन दर्शन की दृष्टि है कि जानना या प्रमा रूप क्रिया चूकिं चेतन है अतः उसमें साधकतम उसी का गुण- ज्ञान ही हो सकता हैं अचेतन सन्निकर्ष आदि नहीं, क्योंकि सन्निकर्ष आदि के रहने पर भी ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता और सन्निकर्ष आदि के अभाव में भी ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । अतः जानने रूप क्रिया का साक्षात अव्यवहित करण ज्ञान ही है सन्निकर्ष आदि नहीं। इस प्रकार जैन दर्शन में ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है ।
सवार्थ सिद्धिः में कहा गया है 'प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमिति मात्रं वा प्रमाणम् ।" अर्थात् जो अच्छी तरह ज्ञान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह