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अनेकान्त-56/3-4
5. सचित्त विरति प्रतिमा - सभी श्रावकाचारों में सचित्तविरति को पाँचवीं प्रतिमा माना गया है, परन्तु सोमदेव ने इसे आठवीं प्रतिमा मानकर अन्यों द्वारा मान्य आठवीं प्रतिमा आरंभत्याग को पाँचवीं प्रतिमा स्वीकार किया है।
सचित्तविरति प्रतिमा का धारक श्रावक मूल, फल, साक आदि वनस्पति के किसी भी भाग को अग्नि से संस्कारित किये बिना सेवन नही करता है। वह जल भी उबालकर प्रासुक होने पर ही पीता है। स्वामी कार्तिकेय ने भी कहा है कि जो दयाल श्रावक मूल, फल, शाक, शाखा, कोंपल, वनस्पति का मूल, फूल एवं बीजों को अपक्व दशा में नहीं खाता है, वह पञ्चम प्रतिमाधरी सचित्तविरत है।" यद्यपि भोगोपभोगपरिमाणव्रत में भी सचित्त भोजन को छुड़ाया गया है, परन्तु वहाँ अतिचार मानकर त्याग कराया गया है, जवकि यहाँ व्रत रूप से उसका निरतिचार त्याग होता है। सचित्तविरति से इन्द्रियसंयम एवं प्राणिसंयम दोनों का परिपालन हो जाता है, क्योंकि उबली वनस्पतियों से स्वादलोलुपता कम हो जाती है। 6. रात्रिभुक्तिविरति/दिवा-मैथुनत्याग प्रतिमा - स्वामी समन्तभद्र का मत है कि जो व्यक्ति प्राणियों पर दयार्द्र चित्र होकर रात्रि में अन्न, पान, खाद्य और लेहय चारों प्रकार के आहार को नहीं खाता है वह रात्रिभुक्तिविरत श्रावक है। आचार्य वसुनन्दि ने छठी प्रतिमा को दिवा मैथुनत्याग के रूप में ग्रहण करते हुए कहा है कि जो मन, वचन, काय से कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा नव प्रकार से दिन में मैथुन का त्याग करता है, वह प्रतिमानुकूल गुणों में छठा श्रावक अर्थात् छठी प्रतिमाधारी श्रावक है। रात्रिभोजन करने वाले मनुष्य के तो ग्यारह प्रतिमाओं में पहली प्रतिमा भी नहीं होती है, इसलिए रात्रिभोजन का त्याग तो होना ही चाहिए। भोजन के मध्य गिरा हुआ चर्म अस्थि, कीट-पतंग, सर्प, केश आदि रात में कुछ भी दिखाई नही देते हैं, अत. रात्रिभोजी इन सबको खा जाता है। यदि दीपक जलाया जाता है तो भी पतंगे आदि अगणित चतुरिन्द्रिय जीव दृष्टिराग से मोहित होकर भोजन के मध्य गिरते हैं। इस प्रकार के कीट-पतंग युक्त आहार को खाने वाला पुरुष इस लोक में अपने नाश का कारण बनता है और परभय में चतुर्गति एवं संसार के दुःखों को पाता है। इस प्रकार रात्रि भोजन में बहुत प्रकार के दोष जान