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अनेकान्त-56/3-4
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के लिए या मंत्र की सिद्धि के लिए, औषधि या आहार के लिए मैं कभी किसी भी प्राणी को नहीं मारूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा को चर्या कहते हैं । इस प्रतिज्ञा में यदि कभी कोई दोष लग जाय तो प्रायश्चित के द्वारा उसकी शुद्धि बतलाई गई है। पश्चात् अपने सब कुटुम्ब और गृहस्थाश्रम का भार पुत्र पर डालकर घर त्याग कर देना चाहिए। यह गृहस्थों की चर्या कही गई है। जीवन के अन्त में अर्थात् मरण के समय शरीर, आहार और सर्व इच्छाओं का परित्याग करके ध्यान की शुद्धि द्वारा आत्मा के शुद्ध करने को साधन. कहते हैं । अर्हन्तदेव के अनुयायी द्विजन्मा गृहस्थ को इन पक्ष, चर्या और साधन का पालन करते हुए हिंसादि पापों का स्पर्श भी नही होता है। इस प्रकार ऊपर की गई आशंका का परिहार हो जाता है ।"
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कदाचित् यह विवेचन ही श्रावक के विविध भेदों का आधार बना तथा इसी के आधार पर पं. आशाधर ने सागारधर्मामृत में तथा पश्चातवर्ती अन्य अनेक श्रावकाचारों में श्रावक के तीन भेद स्वीकार किये गये हैं । संक्षेप में कहा जा सकता है कि जिसको जैन धर्म का पक्ष होता है वह पाक्षिक, जो व्रतों में अभ्यस्त हो जाता है वह नैष्ठिक तथा जो समाधिमरण का साधन करता है, वह साधक श्रावक कहलाता है ।
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नैष्ठिक श्रावक का स्वरूप नैष्ठिक शब्द निष्ठा शब्द से निष्पन्न हुआ है जो श्रावक पूरी निष्ठा से व्रतों का पालन करता है, वह नैष्ठिक कहलाता है 1 नैष्ठिक श्रावक के स्वरूप का विवेचन करते हुए पं. आशाधर ने कहा है
“देशयमघ्नकषायक्षयोपशमतारतम्यवशतः ।
दर्शनकाद्येकादशदशावशो नैष्ठिकः सुलेश्यतरः । । ""
अर्थात् देशसंयम का घात करने वाली कषायों की क्षयोपशम की क्रमशः वृद्धि के वश से श्रावक के दार्शनिक आदि ग्यारह संयम स्थानों के वशीभूत और उत्तम लेश्या वाला व्यक्ति नैष्ठिक कहलाता है।
धर्मसंग्रहश्रावकाचार में कहा गया है कि दोषों का प्रायश्चित करके पुत्र पर कुटुम्ब का भार सौंपकर गृहत्याग करने वाले के नैष्ठिक धर्म उत्पन्न होता है । सम्यग्दर्शनादि तथा दश धर्मों का एक देश पालन करने वाला नैष्ठिक