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अनेकान्त-56/3-4
अन्सरंग कारण बनकर जीव स्वभाव का पराभव नहीं करते, इस दृष्टि से कथंचित पराभव नहीं भी करते हैं अथवा सिद्धों के स्वभाव का पराभव कर्म नहीं कर सकते। इस दृष्टि से भी कथंचित् जीव स्वभाव का पराभव कर्म नहीं भी करते। ज्ञानियों का विलास ही विचित्र है। अनेकान्तवाद में किसी को भी बोलने का मौका नहीं मिलता। 8. कर्म कथंचित् नष्ट होते हैं, कथंचित नष्ट नहीं होते - अष्ट कर्म नष्ट किये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इस सिद्धान्त वचन से जाना जाता है कि कर्म नष्ट होते हैं, क्योंकि अनेक परमात्माओं ने कर्म नष्ट कर मोक्ष प्राप्त किया ही है। कथंचित् कर्म नष्ट नहीं होते। इस कथन का अभिप्राय यह है कि सकल कर्म पर्याय का विनाश होने पर भी कर्म द्रव्य का विनाश नहीं होता। वह कर्म द्रव्य अकर्म पर्याय रूप परिणमन कर जाता है अर्थात् पुद्गल द्रव्य वर्गणाएँ ही आत्मा के रागादि भाव का आश्रय लेकर कर्मरूप परिणमन कर जाती हैं और आत्मा को परतंत्र बना देती हैं। कदाचित् उस आत्मा से अलग होकर कर्मत्व अवस्था को छोड़कर पुनः अकर्म पुद्गल रूप हो जाती है, जैसे कि मणि से मल द्रव्य का मलात्मक पर्याय रूप से विनाश हो जाने पर भी अमलात्मक (अन्य पुद्गल) पर्याय रूप से परिणमन हो जाता है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि कथंचित् (अर्थात् पर्याय की अपेक्षा कर्म नष्ट होते हैं, कथंचित् द्रव्यपन की अपेक्षा) कर्म नष्ट नहीं होते हैं।
कर्म सिद्धान्त का सम्यग्दर्शन - जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव स्वतन्त्र है और वह स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। अपने कर्म का कर्ता और उसके फल का भोक्ता भी वही है किन्तु अनादि से कर्म परतन्त्र होने के कारण वह अपने स्वभाव को भूला हुआ है। इस कारण वह किसी आपत्ति के आने पर 'करम गति टाली नाहि टलौ, विधि का विधान ऐसा ही है, ‘भवितव्यता दुर्निवार है' इत्यादि वाक्यों का प्रयोग करता है। यह तो वही हुआ कि जब जैन-दर्शन ने ईश्वर की दासता से मुक्ति दिलाई तो कर्म की दासता स्वीकार कर ली। यथार्थ में कर्म की गति अटल नहीं है। उसे हम अपने पुरुषार्थ से टाल सकते हैं। उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण आदि कर्म की