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अनेकान्त-56/3-4
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बंध सामान्य की अपेक्षा समानता होते हए भी विशेष की अपेक्षा से इनमें अन्तर है। कषाय के योग से स्थिति और अनुभाग बन्ध तथा योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध।
बन्ध के एक से लेकर संख्यात तक भेद होते हैं। उनमें सामान्य से कर्म बन्ध एक है। विशेषों की अपेक्षा नहीं होने से सेना और वन के समान। जैसे सैनिक, हाथी, घोड़ा आदि भेदों की विवक्षा न होने से समुदाय की अपेक्षा सेना एक कही जाती है, अशोक, तिलक, बकुल आदि वृक्षों की भेद विवक्षा न होने से सामान्यतया वन एक कहा जाता है, उसी प्रकार भेदों की विवक्षा न करने पर सामान्यतया कर्म बंध एक ही प्रकार का है। उसी प्रकार पुण्य और पाप के भेद से कर्म बन्ध भी दो प्रकार का है। अनादि-सान्त, अनादि-अनन्त और सादि-सान्त के भेद से कर्मबन्ध तीन प्रकार का है। प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है। पृथ्वी आदि छह काय के जीवों के भेद से छह प्रकार का कहा गया है। राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कारण के भेद से बन्ध सात प्रकार की वृत्ति का भी अनुभव करता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-आठ प्रकार के कर्मो के विकल्प संख्यात विकल्प हैं, क्योंकि कर्म शब्द के वाचक शब्द संख्यात ही हैं। विकल्प की अपेक्षा असंख्यात हैं। अनन्तानन्त प्रदेश स्कन्ध के परिणमन विधि की अपेक्षा कर्मबन्ध अनन्त है।" 5. पुण्य तथा पाप कथंचित् सदृश है, कथंचित् असदृश- आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है, जैसे सोने से निर्मित बेड़ी हो चाहे लोहे की, दोनों ही तरह की बेड़ियाँ पुरुष को साधारण रूप से जकड़ कर रखती हैं। इसी प्रकार चाहे शुभ कर्म हो या अशुभ कर्म वह साधारण रूप से जीव को संसार में रखता है।
आचार्य पूज्यपाद के अनुसार जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होती है वह पुण्य है, जैसे सातावेदनीय आदि तथा जो आत्मा को शुभ से बचाता है वह पाप है, जैसे असातावेदनीय आदि।