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अनेकान्त-56/3-4
जाना लगा। प्रथम शती ई. में मथुरा की कला में तीर्थकरों की स्वतंत्र प्रतिमाओं का भी निर्माण होने लगा जिनकी कुल संख्या 24 है।
मध्यकालीन भारत के विभिन्न भागों से जैन तीर्थकरों की अनेक प्रतिमायें प्राप्त होती हैं। मध्यकाल की अनेक पार्श्वनाथ तीर्थकर प्रतिमाओ के पार्श्व में यक्ष प्रतिमाओं को देखकर एस.सी. काला महोदय ने बतलाया है कि गणपति की उपासना भी जैन प्रतिमाओं के साथ की जाती थी। उन्होंने यक्ष प्रतिमाओ को भ्रमवश गणपति की प्रतिमा स्वीकार कर ली थी। जैन प्रतिमा विधान के अनुसार पार्श्वनाथ से सम्बन्धित यक्ष (पार्श्वयक्ष) को गणपति के सदृश गजमुख प्रदर्शित किया जाता है। किन्तु पार्श्वयक्ष प्रतिमा के नीचे वाहन रूप में कच्छप की आकृति निर्मित होती है और गणपति के वाहन के रूप में मूषक प्रदर्शित किया जाता है। मध्यकालीन गणपति प्रतिमाओं के हाथों में मोदक, मोदक-पात्र, कमल, परशु, नाग, अंकुश, कण इत्यादि का प्रदर्शन हुआ है जबकि पार्श्वनाथ की प्रतिमा में ऐसा नहीं होता है।
जैन कला की समृद्धि के वास्तविक परिचय का अभाव दिखाया देता है। परन्तु उपरोक्त वर्णन के अनुसार कुछ उदाहरणों में उनकी महत्ता दर्शनीय है। जिनमें लोहनीपुर (पटना) और कंकाली टीले (मथुरा) की जिन प्रतिमाओं में
अंकित यक्ष-युगल उदात्ता लावण के प्रतीक हैं। अधिकांशतया तीर्थकरों दोनों पार्यो में यक्ष-यक्षणियों के युगल के सौम्यचित्रों के साथ-साथ मूर्तियो में भी उज्जवल धूमवर्ण लोक शैली की अल्हड़ता, वस्त्र सज्जा और हस्त मुद्राएं सभी में कलात्मक श्रृंगार तथा माधुर्य ओत-प्रोत हैं।
भारतीय चित्रकला में जैन शिल्प का एक अपना विशिष्ट स्थान है। जिसका स्पष्टीकरण जैन प्रतिमाओं को देखकर हो जाता है। क्योंकि जैन प्रतिमाओं की भॉति चक्षु निर्माण शैली अन्यत्र दुर्लभ है। सित्तनवासन की जिन पाँच मूर्तियों को प्राचीन माना जाता है उन पर बोद्धशैली का प्रभाव दिखायी देता है। यदि प्रतीकों को छोड़ दिया जाये तो अधिकांश जिन मूर्तियों और बुद्ध मूर्तियों में बहुत कम अन्तर दिखायी देता है।