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अनेकान्त-56/3-4
या पुरुषार्थ का सर्वथा अभाव रहता है। किसी विशेष कर्म की ही यह अवस्था होती है।"
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दर्शन के अनुसार जीव जिस रूप में कर्मो का बन्ध करता है वे उसी रूप में फलदायी नही होते। बन्ध से उदय तक के मध्यवतीकाल में वर्तमान कर्मों के अनुसार पूर्वकृत कर्मों में परिवर्तन किया जा सकता है अशुभ दूषित कर्मों में सुधार किया जा सकता है और कुत्सित आचरण के द्वारा पूर्वकृत कर्मो को उत्तेजक विकृत भी किया जा सकता है और संवर निर्जरा द्वारा कर्मो को समूल नष्ट भी किया जाता है।
संदर्भ 1 गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 410 2 वही - 410 3 जेन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग-4, पृष्ठ 119 4 गोम्मटसार कर्मकाण्ड जीव तत्त्वप्रदीपिका, गाथा-438 5 कर्म रहस्य, प्र 172-173 6 गोम्मटसार कर्मकाण्ड जीव तत्त्वप्रदीपिका गाथा-138 7 कर्म रहस्य, प्र 172-173 ४ गोम्मटसार कर्मकाण्ट जीव तत्त्वप्रदीपिका गाथा-438 9 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोप, भाग ।, प्र 82 10. जैन तत्त्व कलिका, छठी कलिका, प्र 180 11 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भाग । प्र 464 12 जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 4 प्र 25 13 कर्म रहस्य, प्र 175 14 जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग-4, प्र 25 15 गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा 450 16 जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग 4, प्र 25
-गंज बासोदा जिला - विदिशा (म.प्र.)