Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 160
________________ अनेकान्त-56/3-4 25 है।।। कर्म की इस अवस्था में उदय या उदीरणा संभव नहीं होते। जिस प्रकार राख से आवृत अग्नि, आवृतावस्था में अपना विशेष कार्य यही कर सकती किन्तु आवरण हटते ही पुनः प्रज्वलित होकर अपना कार्य करने में समर्थ हो जाती है उसी प्रकार उपशम अवस्था में रहा कर्म उस अवस्था के समाप्त होते ही अपना कार्य आरम्भ कर देता है यानि उदय में आकर फल प्रदान करना प्रारम्भ कर देता है। निर्मली के डालने से जैसे मैले पानी का मैल नीचे बैठ जाता है और कुछ समय के लिए स्वच्छ जल ऊपर आ जाता है उसी तरह कर्मो की उपशमन अवस्था में परिणामों की विशुद्धि के कारण कर्मो की शक्ति अनुभूत हो जाती है। यद्यपि यह अवस्था क्षणिक होती है परन्तु इस अवस्था का मोक्षमार्ग में अत्यन्त महत्त्व है। क्योंकि जितने समय के लिए कर्मो का क्षोभ शान्त हो जाता है उतने समय में यह जीवात्मा समता और आनन्द का अनुभव करता है। यह अल्पकालीन आनन्द ही उसे पुनः कर्मो से मुक्ति की प्रेरणा करता रहता है। श्री जिनेन्द्र वर्णी के अनुसार संस्कारों के उपशम से प्राप्त क्षणिक आनन्द ही व्यक्ति की सकल प्रवृत्तियों को अपनी ओर उन्मुख कर लेता है। उसकी स्मृति चित पर अंकित हो जाती है। एक बार किसी वस्तु का स्वाद आ जाने पर जिस प्रकार व्यक्ति पुनः पुनः उसकी प्राप्ति के लिए ललचाता रहता है और प्रयल करता है उसी तरह उपशम से प्राप्त रसोन्मुखता उसे निरन्तर कर्मो को पूर्ण क्षय करने और आत्माभिमुख होने की ओर प्रयत्नशील बनाये रखती है। निधत्ति - कर्मो की वह अवस्था निधत्ति कहलाती है जिसमें उदीरणा और संक्रमण का तो सर्वथा अभाव होता है और कर्मों का उत्कर्षण अपकर्षण संभव होता है। निकाचित - कर्म की उस अवस्था का नाम निकाचना है जिसमें उत्कर्षण अपकर्षण संक्रमण, उदीरणा का अभाव होता है। कर्मो की इस अवस्था को नियति कहा जा सकता है क्योंकि इस अवस्था में कर्मो का फल उसी रूप में प्राप्त होता है जिस रूप में बन्ध को प्राप्त हुआ था। इसमें इच्छा, स्वातन्त्रय

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