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अनेकान्त-56/3-4
प्रकार ग्वाला आलस्य रहित होकर बड़े प्रयत्न से गायों की रक्षा करता है। उसी प्रकार राजा को भी आलस्य रहित हो बड़े ध्यान से प्रजा के हितो की रक्षा करनी चाहये।
अतः राजा को प्रजा का हित ध्यान में रखना आवश्यक है। साथ ही साथ वह न्यायप्रिय भी होना चाहिये। उसमें पालक के गुण मौजूद होने चाहिये। यह कहावत प्रसिद्ध है कि “यथा राजा तथा प्रजा" जैसा राजा होगा वैसी प्रजा भी होगी। अतः राजा को न्यायप्रिय होना चाहिए। भ्रष्टाचारी व दुराचारी नहीं होना चाहिये।
भरतजी कहते हैं, “दुःखी प्रजा की रक्षा करने में नियुक्त आप लोगों का धर्म योग व क्षेम का है" अर्थात् जनता के लिये नवीन वस्तु की प्राप्ति एवं पुरानी की रक्षा करना राजा का परम धर्म है। वह धर्म पांच प्रकार का है (1)कुलपालन (2) बुद्धिपालन (3) अपनी रक्षा (4) प्रजा की रक्षा (5) समंजसपना। प्रजा दो प्रकार की है (1) प्रजा की रक्षा करने वाली प्रजा (2) जिसकी रक्षा की जाय, वह प्रजा। अपनी, कुल की एवं बुद्धि की रक्षा करने में धर्म ही उत्तम साधन है और प्रजा की रक्षा में भी धर्म व न्यायप्रियता का होना आवश्यक है।
राष्ट्र की रक्षा व विकास समुचित हो इसके लिए जनता को तीन वर्गों में बांटा गया। इस वर्गीकरण में गुणों की प्रधानता थी। जनता में सेना (Army), अर्थ (Finance), तथा श्रम (Labour) का वर्गीकरण समुचित होना आवश्यक है। इन तीनों का निर्माण अहिंसा के सिद्धांत पर होना चाहिये। राष् के अंग-अंग में इन तीनों की समता व सामर्थ्य होना ही चाहिये।
अतः जहाँ मानव में वीरता व साहस की भावना देखने को मिली वह सैन्य वर्ग या क्षत्रिय वर्ग कहलाया। जिन मनुष्यों में बुद्धि तथा साहस के साथ संचय की भावना पायी गई वह वैश्य वर्ग कहलाया, उस पर अर्थ सम्पन्नता का भार डाला गया। उनका कर्त्तव्य न्यायपूर्वक अर्थ कमाकर एवं संचय कर राष्ट्र को समृद्धशाली बनाना था। शेष मानव श्रम भार वहन करने के लिये स्वतंत्र था।