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अनेकान्त-56/1--2
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प्रमेय से प्रमाण मे कथञ्चि। भिन्नता भी है। क्योंकि प्रमाण तो प्रमाण भी है और प्रमेय भी, जबकि प्रमेय केवल प्रमेय है।
नय का लक्षण __परस्पर विरुद्ध पक्षो वाली अनेक रूपात्मक वस्तु को किसी एक पक्ष से दखने वाली ज्ञाता की दृष्टि का नाम नय है। जब-जब वस्तु में धर्म-धर्मी का भेद होकर धर्म द्वारा वस्तु का ज्ञान होता है तब तब वह ज्ञान नयज्ञान कहलाता है। इसी कारण नयो को श्रुतज्ञान का भेद कहा गया है। यद्यपि प्रमाण और नय दोनो से पदार्थों का ज्ञान होता है, तथापि इतनी विशेषता अवश्य है कि प्रमाण सकलादेशी है जबकि नय विकलादेशी है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा है 'सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति।' 15
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य मे नय का निरुक्त्यर्थ करते हुए कहा गया है-'जीवादीन पदार्थान् नयन्ति प्राप्नुवन्ति कारयन्ति साधयन्ति निवर्तयन्ति निर्भासयन्ति उपलम्भयन्ति व्यञ्जयन्ति इति नयः। 6 अर्थात जो जीवादि पदार्थो को लाते है, प्राप्त कराते है, बनाते है, अवभास कराते हैं, उपलब्ध कराते है, प्रकट कराते है, वे नय है। तिलोयपण्णत्ती, आलापपद्धति, प्रमेयकमल मार्तण्ड आदि ग्रन्थो मे ज्ञाता, प्रमाता अथवा वक्ता के अभिप्राय को नय कहा गया है।" आचार्य पूज्यपाद का कहना है कि अनेकान्तात्मक वस्तु मे विरोध के बिना हेतु को मुख्यता से साध्यविशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग को नय कहते है। " श्लोकवार्तिक मे अपने को और पदार्थ को एक देश रूप से जानना नय का लक्षण माना गया है।" आचार्य अकलकदेव ने प्रमाण के द्वारा सगृहीत वस्तु के अर्थ के एक अश को नय माना है। 40 आचार्य पूज्यपाद का कहना है कि वस्तु को प्रमाण से जानकर बाद में किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थ का निश्चय करना नय है। श्लोकवार्तिककार के अनुमान श्रुतज्ञान को मूल कारण मानकर ही नयज्ञानों की सिद्धि मानी गई है। 2 नय के भेद
तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने सात नयो का उल्लेख किया हैनगम. सग्रह, व्यवहार. ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ एवं एवभूत।