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अनेकान्त--56/1-2
उसका उदय तो होगा पर वह निमित्त अभाव में स्वमुख से उदय न होकर परमुख से उदय हो जाता है। प. फूलचन्द्र शास्त्री ने सर्वार्थसिद्धि के विशेषार्थ में स्वयं लिखा है कि 'हास्य और रति का उत्कृष्ट उदयकाल सामान्यतः छः माह है। इसके बाद इनकी उदय-उदीरणा न होकर अरति और शोक की उदय-उदोरणा होने लगती है। किन्तु छह माह के भीतर यदि हास्य और रति के विरुद्ध निमित्त मिलता है तो बीच में ही इनकी उदय-उदीरणा बदल जाती है।" इसी प्रकार स्वर्ग मे सातानिमित्तक सामग्री होने से असाता उदयकाल मे साता रूप में परिणत हो जाती है तथा नरक मे असातानिमित्तक सामग्री होने से साता उदयकाल मे असाता रूप में परिणत हो जाती है। पूज्यवाद स्वामी ने लिखा है 'द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मणां फलप्राप्तिरुदयः।' 'को भव:? आयुर्नामकर्मोदयनिमित्तः आत्मनः पर्यायो भवः। प्रत्ययः
कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम्।' 7 भ्रान्ति 3. निमित्त को कारण मानने से द्रव्य की स्वतन्त्रता मे बाधा होती है। समाधान- उक्त प्रश्न के उत्तर मे आचार्य अकलंकदेव का कहना है कि ध
मादि द्रव्यो के निमित्त से ही जीव एव पुद्गल की गति-स्थिति संभव होती है। क्या ऐसा मानने से जीव अपने मोक्ष पुरुषार्थ मे असमर्थ हो जाता है? यदि नहीं, तो निश्चित है कि कार्योत्पत्ति में परद्रव्य के निमित्त मात्र होने से वस्तु स्वातन्त्रय मे कोई बाधा नही आती है।
इसी प्रकार की अन्य अनेक भ्रान्तियाँ भी निरपेक्ष नयो को ग्रहण करने से उत्पन्न हुई है। अत: नया में सापेक्षता आवश्यक है।