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अनेकान्त-56/1-2
जैन रहस्यवाद चिन्तन और अनुभूतिप्रधान है। आत्मा में अनुभूति की सहज शक्ति विद्यमान है, इस अनुभूति के द्वारा ही साधक विकार या विकल्पों को पररूप मानती हुआ अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव कर स्वातन्त्रय लाभ कर लेता है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिये जैन रहस्यवादी प्रणाली के अनुसार दो मार्ग हैं- संवर और निर्जरा। सवर द्वारा साधक नवीन कर्मो के आगमन को रोकता है।' निर्जरा द्वारा संचित कर्मो को क्षय करता है। निर्जरा दो प्रकार की हैसविपाक और अविपाक। कर्मो के उदयकाल में उनके शुभ एव अशुभ के वेदन को विपाक कहा गया है। इस विपाक के द्वारा जो कर्मक्षय होता है उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। यह निर्जरा साधना के बिना स्वतः होती है, अतः इसके द्वारा कर्मो का अन्त संभव नहीं है। अविपाक निर्जरा द्वारा साधक तप ध्यान योग एव अन्य आध्यात्मिक साधनाओ से कर्मफल को भोगे बिना ही उदयकाल में आने से पूर्व ही क्षय कर देता है। इस प्रकार साधक विभाव भावो का त्याग कर निर्विकल्प समाधि मे पहुंच जाता है और अपने पूर्व संचित कर्मो को क्षय कर डालता है।
जैन वाङ्मय के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्राकृत और सस्कृत के कवियों ने ज्ञानमूलक अध्यात्मवाद का निरूपण किया है तो भ्रश के कवियो ने साधनात्मक अध्यात्मवाद का और हिन्दी के जैन कवियो ने इसी अध्यात्मवाद में प्रेम और दाम्पत्यभाव का नियोजन कर इसे सरस और हृदयग्राही बनाने का प्रयास किया है।
जैन रहस्यवादी ग्रन्थों के अध्ययन के फलस्वरूप हमारी दृष्टि मे जैन रहस्यवाद में निम्न तत्त्वों का समावेश पाया जाता है1. आध्यात्मिक अनुभूति की क्षमता 2. आत्मा और परमात्मा मे ऐक्य की भावना 3. कर्मवद्ध आत्मा का कर्मरहित आत्मा के प्रति समर्पण 4. अनन्त ज्ञान अनन्तदर्शनमय आत्मा के अस्तित्व का दृढ निश्चय और
उसके शुद्धिकरण पर विश्वास।