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किया था कि भगवान महावीर की जन्मस्थली विदेह स्थित (अथवा वैशाली स्थित) कुण्डलपुर ही है, और इस समय जन्मस्थली को लेकर किसी भी प्रकार के भ्रम अथवा विवाद खड़े करने से जैनेतरो तथा केन्द्रीय एव प्रान्तीय सरकारों में गलत सन्देश जाएगा, कि जैन समाज असंगठित है, जो समाज के भविष्य के लिये हितकारी नही। क्योंकि यह ऐतिहासिक तथ्य है। कि पिछले पारस्परिक विवादों ने जैन-संघ की शक्ति को बिखेर दिया है। __ प्रारंभ में जैन समाज बहुसंख्यक, श्रीसमृद्ध एवं सुसंगठित होने के कारण न केवल भारत में, अपितु विदेशो में भी अत्यन्त सम्मानित एवं प्रभावक था। पिछला इतिहास ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है। किन्तु आज उसकी क्या स्थिति होती जा रही है?
यह तो सर्वज्ञात ही है कि ईसा पूर्व चौथी सदी मे मगध सहित समस्त पूर्व एवं उत्तर भारत में भीषण दुष्काल पड़ा था और उस कारण श्रमण धर्म एवं संघ की सुरक्षा हेतु आचार्य भद्रबाहु ससंघ अपने नवदीक्षित शिष्य मगध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) के साथ दक्षिण भारत गये थे। उस भीषणता में मगध एवं विदेह से निर्ग्रन्थों को स्थान- परिवर्तन के लिये बाध्य होना पड़ा था। यह विषम स्थिति आगे भी विपरीत परिस्थितियो के कारण बढ़ती रही। फिर भी किन्हीं कारणों से कुछ जैनधर्मानुयायी एवं निर्गन्थ वहाँ रह गये थे। क्योंकि सुप्रसिद्ध चीनी यात्रियों ने विदेह-वैशाली के निर्ग्रन्थों की प्रचुरता का चर्चा की है। किन्तु बाद में वे सब निर्ग्रन्थ कहाँ चले गये? क्या कभी इस तथ्य पर भी विचार किया गया है? तह मे जाकर देखें तो विदित होगा कि ईसा-पूर्व तीसरी सदी के बाद से लेकर गुप्त काल के मध्य जैन समाज पर इतर ईर्ष्यालुओं ने कितने-कितने कहर ढाए? शैवों एव शाक्तों ने जैनियों को नास्तिक कहकर "हस्तिना ताइयमानो पि न गच्छेत जैन मन्दिर' के नारे लगाकर दक्षिण भारत के समान ही वहाँ भीषण नरसहार किये, उनका धर्म-परिवर्तन किया गया अथवा उनको अपने देश के बाहर खदेड़ भी दिया गया। यहाँ तक कि उनके आयतनों के नामोनिशान तक भी समाप्त कर दिये गये। इन्हीं सब कारणों से परवर्ती कालों मे वैशाली-कुण्डलपुर तथा उसके भवनों, आयतनों एवं वहाँ के