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काम
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म-क्रोध-मद जैसे अवगुण, लोभ-मोह जैसे दुख दारुण । कितना त्रस्त रहा मैं कातर, पार करा दो यह भव-सागर ।। 31 ।। तुम हो सब के तारण हारे, ज्ञान-हीन सब पापी तारे । स्वयं तपस्या-लीन अखंडित, सिद्धों की गरिमा से मंडित ।। 32 ।। त्याग-तपस्या के उद्बोधक, कर्म-जनित पीड़ा के शोधक । ज्ञान बिना मैं दष्टि-हीन-सा, धर्म बिना मैं त्रस्त दीन-सा ।। 33 ।। तुम हो स्वर्ग-मुक्ति के दाता, दीन-दुखी जीवों के त्राता । मुझे रत्नत्रय मार्ग दिखाओ, जन्म-मरण से मुक्ति दिलाओ ।। 34 ।। पावन पवन तुम्हारी गिरिवर, गुंजित हैं जिनवाणी के स्वर । अरिहंतों के शब्द मधुर हैं, सुनने को सब जन आतुर हैं तुम कुन्दन, मैं क्षुद्र धूलिकण, तुम गुण-सागर, मैं रीतापन । पुण्य-धाम तुम, मैं हूँ पापी, कर्म नशा दो धर्म प्रतापी ।। 36 ।। तेरी धूल लगाकर माथे, सुरगण तेरी गाथा गाते । वातावरण बदल जाता है, हर आचरण सँभल जाता है ।। 37 ।। तुम में है जिन टोंकों का बल, तुम में धर्म-भावना निर्मल | दिव्य वायुमंडल जन-हित का, करदे जो उद्धार पतित का ।। 38 ।। मैं अज्ञान तिमिर में भटका, इच्छुक हूँ भव-सागर तट का । मुझको सम्यक् - ज्ञान करा दो, मन के सब संत्रास मिटा दो ।। 39 ।। तुम में है जिनवर का तप-बल, मन पर संयम होता हर पल । नित्य शिखर जी के गुण गाऊँ, मोक्ष-मार्ग पर बढ़ता जाऊँ ।। 4011
।। सौरठा ।।
श्रद्धा से, मन लाय
जो यह चालीसा पढ़े ।
अनेकान्त-56/3-4
भव सागर तिर जाय
कर्म-बन्ध से मुक्त हो ।।
(इति श्री सम्मेद शिखर चालीसा सम्पूर्ण)