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अनेकान्त-56/1-2
काल पंचमा के अवसान। मिथ्यामत विनशै सब थान।। 51॥ वीरांगद नामा मुनि एका मूल गुणी है गो सुविवेक। अल्पश्रुती हू करै संबोध। वीरनाथ सममत अविरोध।। 52॥ पूरव आचारिज कृत ग्रंथ। लखि कैं देवसेन शुभ पंथ। केई गाथा करि इक थानि। धारा नगरी में गुणखानि।। 53॥ संवत् नौ सैं निव्वै मानि। माघ शुक्ल दशमी तिथिजांनि। भविजीवनि कै हार समान। दर्शनसार रच्योशुभ खानि॥ 54॥ पारस जिन के गेह मंझार। रूषो तषो जन अविचार। सत्यकथन तैं साड़ी जथा। जू का भय तें तजिय न तथा। वीस अधिक उगणीसै साल। श्रावण प्रथम चौथि शनिवार कृष्ण पक्ष मैं दर्शनसार। भाषा नथमल लिखी सुधार॥
संदर्भ
1 भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक - ये चतुर्निकाय के देव है। 2. पैर, चरण। 3 पूर्वाचार्य। 4 भरतक्षेत्रवर्ती। 5 प्रधान। 6. पार्श्वनाथ के तीर्थकाल मे। 7. मछली। 8 जिसने. 9. लाल, 10 मास. 11. कर्म, 12 श्वेताम्बर, 13. स्त्री, 14. वस्त्रधारण, 15 पाप, 16 सचित किया, 17 महावीर स्वामी, 18 भिक्षु, 19. मार्ग. 20. खाद्य पदार्थ, 21. आटा, 22 व्यापारी, 23. पाप, 24 स्नान, 25. छोडी, 26 हरियाणा, 27 श्रमण, 28. पापबुद्धि, 29 पार्श्वनाथ के मन्दिर मे. 30 सावधानी से।
नोट - दर्शनमार ग्रथ आचार्य देवसेन की मूल रचना नही है, जैसा कि लेखक ने लिखा। अपितु यह सग्रह ग्रथ है जिसका उल्लेख स्वय देवसेन आचार्य ने दर्शनसार मे किया है तथा हि
पुवायरियकयाई गाहाई संचिऊण एयत्थ। सिरिदेवसेणगणिण धाराए सवसंतेण॥
- दर्शनसार 49
-सम्पादक