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अनेकान्त-56/1
अज्ञान
पूज्यवाद मुनिवर को शिष्य। व्रजनंदि नामा इक भिक्ष । पाहुड ज्ञान धारतो दुष्ट। द्राविड़ संघ को अति पुष्ट॥ 27॥ अप्रासुक के भक्षण माहि। मुनि के दोष कळू भी नांहि। ऐसें काहे विपरीत सिद्धान्त। तानैं कल्पे मिथ्या ध्वान्त।। 28।। बीजनि मैं नांहि है जीव। बैठयो भोजन कहै सदीव। प्रासुक नाही कोऊ खान। खानैं मैं नहिं पाप निदान।। 29॥ जैसैं भखिए घर को चून। तैसैं ही मोदी' को चून। यामैं अवद्य' लेस हू नांहि। भाषत है द्राविडमत मांहि।। 30॥ वाडी खेती चुनि के गेह। करि व्योपार जीवते जेहू। शीतल जल मैं करतें न्हान। तिनकै पाप लेश नहि जान॥31॥ यमवसि विक्रम नृप कू भए। वर्ष पाँच सै छत्तिस गए। उपज्यो दक्षिण मथुरा मांहि। द्राविड़ संघ मोह अधिकाहि॥ 32॥
द्राविड़ संघ
वरष सात सैं पांच जु गए। पुर कल्याणवर माही ठये। सिरी कलश नामा सेवाड़ो। जावलि संघ कियो तिहिं खड़ो। 33।। वीरसेन को शिष जिनसेन। कीनौं सब श्रुत को अध्येन। पद्मनन्दि मुनि पीछे सोह। च्यारि संघ कौं धारै जोहु।। 34|| ताको शिष्य महागुणवान। शुभ भद्दर धारै शुचि ज्ञान। करै वास पक्ष के सदा। भावलिंग मैं दोष न कदा॥ 35॥ विनयसेन क तत्त्वस्वरूप। जणवायो सत्यारथ रूप। कहि सिद्धान्त धारि संन्यास। पायो देवलोक को पास॥ 36॥ विनयसेन को दिक्षित गाम। नदी तट मै अघ को धाम। नाम कुमारसेन संन्यास। भंजन करित हि मानै त्रास। 37॥ मोरपिछिका जानै जही। चरमघोषणा घोसै सही। सब ही बागड" देश मझार। उनमारग कल्प्यो अघद्वार॥ 38॥ वनिता फिरि दिक्षा कू गहै। क्षुल्लक वीर चर्या कुं वहै।