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सुख और शान्ति का मूल : शाकाहार
-डॉ. सुषमा मनुष्य ही नहीं समस्त प्राणी निरन्तर सुख (आनन्द) की कामना करते है। सुख या आनन्द तृप्तिदायी एक मनोभाव है, जो मानसिक क्षोभ के अभाव मे ही उत्पन्न होता है। मन जितना ही शान्त और निस्तरड़ होता है, उतना ही उसमे आनन्द का स्रोत उमड़ता है। इसके विपरीत उसमे जितना ही क्षोभ होता है, उतनी ही पीड़ा का तूफान अपनी उन्ताल तरड़ों के साथ उसमे अंगड़ाई लेने लगता है। मन में क्षोभ का कारण लोभ, मोह और कोध होता है और इसके विपरीत मैत्री की भावना, करुणा और मुदिता वृत्तिया मन का प्रसादन करती है।' जीवहिसा मैत्री आदि भावो के रहते हो ही नही सकती, इसलिए यह सुनिश्चित है कि जीवहिसा करने वाले के हृदय मे मैत्री (प्रेम) आदि भावो का सर्वथा अभाव होगा और इसी कारण उसके चित्त में प्रसाद (शान्ति) का भी अभाव होगा अर्थात् उसमें क्षोभ होगा, जो निश्चय ही पीड़ा तथा दुःख का कारण होगा। इसलिए यह विश्वासपूर्वक कहा जाना चाहिए कि जीवहिंसा की भावना अपने उद्भवकाल से ही दुःख और पीड़ा की मृल है तथा जीव-दया सुख एव शान्ति का जनक है।
आजकल के कुछ पाश्चात्य चिकित्साशास्त्री शरीर के पोषण के लिए आवश्यक तत्त्वो मे प्रोटीन की मात्रा मांस, मछली और अण्डो मे सर्वाधिक है, ऐसा कहकर मांसाहार को आवश्यक अथवा लाभकारी सिद्ध करने का दावा करते हैं तथा 'मासात्मास प्रवर्धते' अर्थात् मासाहार से मास की वृद्धि होती है, यह कहते हुए अपने कथन का समर्थन करने का प्रयत्न करते है। उनके लिए प्रथमतः तो मै यह कहना चाहूंगी कि शरीर में रस, रक्त की जितनी
आवश्यकता है, उतनी मास की आवश्यकता नही है। वे लोग जो मेद और मास के बढ़ जाने से बहुत मोटे और गोलमटोल दिखाई पड़ते है. उनमे