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अनेकान्त-56/1-2
प्रेम का, अहिंसा का और दयाभाव का प्रभाव। इसी प्रकार राजा प्रसेनजित की श्रावस्ती नगरी में क्रूर डाकू अंगुलिमाल की महात्मा बुद्ध के शिष्य होने की कथा सुविदित है। कहने का तात्पर्य है कि प्रेम और अहिसा की साधना प्राणिमात्र को अन्त:करण से वैरभाव, क्षोभ और क्रोध को समाप्त करके जहा एक ओर प्रत्येक व्यक्ति को सुख-शान्ति प्रदान करती है, वहीं दूसरी ओर व्यक्तियों के समष्टिभूत समाज में वैर-विरोध से रहित, प्रेम से आप्लावित भ्रातृभाव की प्रतिष्ठा कर सुमधुर समाजिक स्वास्थ्य को समृद्ध बनाती है ।
प्राय: कहा जाता है कि आदिम युग में जब मानव जगली था, असभ्य था, उसे खेती करना नहीं आता था, उस समय में वह शिकर करके ही मास से अपनी पेट पूजा करता था। किन्तु क्या आज यह आश्चर्य का विषय नही है कि एक ओर तो वह (मानव) अति सभ्य और समुन्नत होने का दम्म भरता है और दूसरी ओर मांसाहार की उस आदिम आदत को सभ्यता, संस्कृति आधुनिकता और बड़प्पन का प्रतीक मानने के भ्रम में पड़कर मांसाहार को जोर-शोर के साथ गले लगा रहा है। मांसाहार एव हिसा के निषेघ के प्रसग में ईसामसीह का कथन ध्यातव्य है । यथा-
'जो कत्ल करता है, वह अपने आप का हत्यारा है और जो मारे हुए जानवरो का मांस खाता है, वह उनके जिस्म से मौत को खाता है। उनकी मौत उसकी अपनी मौत हो जायेगी, क्योकि पाप का नतीजा मौत है। न मनुष्यों का वध करो और न जानवरों का और न ही किसी जीव को अपना आहार बनाओ, क्योकि तु अगर जीवित ( शाकाहार ) भोजन को अपना आहार बनाओगे, तो तुम्हें जीवन एवं शक्ति मिलेगी, लेकिन अगर तुम मृत भोजन ( मांसाहार) करोगे, तो वह मृत आहार तुम्हें भी मार देगा। क्योंकि केवल जीवन से ही जीवन मिलता है और मौत से हमेशा मौत ही मिलती है । मृत भोजन तुम्हारे शरीर को भी मृत बना देगा और जो चीजें तुम्हारे शरीर को मारती हैं, वे तुम्हारी आत्मा को भी मार देगी। जैसा तुम्हारा भोजन होता है, वैसा ही तुम्हारा शरीर बन जाता है और इसी तरह जैसे तुम्हारे विचार होते हैं, वैसी ही तुम्हारी आत्मा बन जाती है। ',