________________
118
अनेकान्त-56/1-2
होता है।
कुछ धार्मिक सम्प्रदायों में देवता विशेष के सामने अथवा कुछ विशेष पर्वो (बकरीद आदि) पर धर्म के नाम पर पशु-वध किया जाता है। इससे वधकर्ता को पुण्य मिलता है, कल्याण की प्राप्ति होती है, ऐसा विश्वास किया जाता है और प्रसाद रूप में उस पशु का मांस खाया जाता है। जबकि महाभारत के अनुसार धर्म के नाम पर मद्य-मांस का प्रचार धूर्त, स्वार्थी और जिहवा-लोलुप लोगों ने किया है। वेद आदि धर्मग्रन्थों में कही इसे धर्म नहीं माना गया है।' धर्मशास्त्रों में तो सभी कर्मो में अहिंसा की ही प्रतिष्ठा की गयी है। वस्तुतः हिंसा सबसे बड़ा पाप है, सर्वविध अनर्थ का हेतु है और अहिसा सर्वश्रेष्ठ धर्म है।
महर्षि पतञ्जलि तो घोषणा करते हैं कि अहिंसा व्रत का सर्वतोभावेन पालन करने पर साधक के साथ हिंसक और अहिंसक सभी प्राणियों के साथ वैरभाव सम्पूर्णतया विलीन हो जाता है। अहिंसा अर्थात् प्रेम की साधना के उपर्युक्त परिणाम के प्रसंग में निम्नलिखित सुविदित ऐतिहासिक कथावृत्त स्मरणीय है। पिछली शताब्दी में पश्चिमी देशों में दास (गुलाम) प्रथा दृढमूल होकर प्रतिष्ठित थी। दास (गुलाम) के रूप में मनुष्यों को भेड़-बकरी की भांति खरीदा और बेचा जाता था। दास यदि अपनी मुक्ति के लिए भागने का प्रयत्न करता था, तो राज-नियम के अनुसार उसे मृत्यु-दण्ड दिया जाता था। उसी काल की बात है कि रोम देश में एण्ड्रोक्लीज नाम का एक गुलाम था, जो गुलामी को मृत्यु से भी घृणित और पीड़ादायी मानता था। एक दिन अवसर पाकर वह अपने मालिक के यहां से भाग निकला। मालिक ने राजा से शिकायत की। एण्ड्रोक्लीज की खोज प्रारम्भ हुई। वह छिपने के लिए घने जंगल में भटकने को विवश हुआ। जंगल में भटकते हुए एक दिन एक सिह उसके सामने पड़ गया। सिंह झाड़ी में बैठा था, उसके मुख पर गहन पीड़ा की छाया स्पष्ट दिखायी दे रही थी और वह अपने एक पैर के पंजे को बारम्बार भूमि पर रगड़ रहा था। एण्ड्रोक्लीज ने उसे देखा, उसकी पीड़ा को पहचाना और यह भी समझ लिया कि सिंह की पीड़ा का मूल उसके एक पैर के पंजे