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अनेकान्त-56/1-2
रहता है, जिससे अनेकानेक रोग, जिनमे हृदयरोग मुख्य है, उत्पन्न होकर पीड़ा के कारण बनते हैं।
आहार के रूप में ग्रहण किया गया मास इतने अधिक विष और तेजाब उत्पन्न करता है कि उससे मानव शरीर की सचालन क्रिया ही बिगड जाती है, इसीलिए कोई भी मनुष्य केवल मासाहर पर डेढ़ दो सप्ताह से अधिक जीवित नहीं रह सकता। इसके विपरीत शाकाहार, जिसमे अन्न, दूध, फल और सब्जियां सम्मिलित है, पर मनुष्य सम्पूर्ण जीवन स्वस्थ और सानन्द रहता है।
फलत: निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि मासाहार के पक्ष मे पाश्चात्य - चिकित्साशास्त्रियों के तर्क पूर्णतः भ्रान्त धारणा पर आधारित है। मासाहार किसी भी अर्थ मे कल्याणकारी न होकर अविराम पीड़ा का कारण होता है।
यतः प्राणियो की हिसा किये बिना मास की प्राप्ति नही होती तथा प्राणियां की हिसा अपने मूल में ही मानसिक क्षोभ उत्पन्न करने वाली होने के कारण सुखमयी नही है, अतः मनुष्य को मासाहार का पूर्णतया त्याग करना चाहिए।' जो व्यक्ति आहार सम्बन्धी नियमों का, विधिविधान का पालन करता है, पिशाचो की भाति मासभक्षण नहीं करता. वह कभी रोग ग्रसत नहीं होता, इतना ही नहीं, वह सभी प्राणियों का प्रिय हो जाता है।
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मनु का कथन है कि जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों के मास से अपना मास बढ़ाना चाहता है, उससे बढ़कर कोई पापी नहीं है। प्रतिवर्ष अश्वमेघ करके सौ यज्ञो द्वारा शतक्रतु (इन्द्र) पद प्राप्त करने का जो फल है, कभी भी मांस भक्षण न करने से प्राप्त पुण्य उसके समान ही है। यही कारण है कि जिस प्रकार सदा यज्ञ करने वाले व्यक्ति को, प्रतिदिन दान करने वाले व्यक्ति को तपस्वी कहा जाता है, उसी प्रकार कभी मांसाहार न करने वाले को भी उच्चकोटि का तपस्वी माना जाता है। इतना ही नही, उन (मनु) का मानना है कि मासाहार कं परिहार से जो अपार पुण्यफल प्राप्त होता है, वह पुण्यफल केवल मध्य फल कन्द-मूल अथवा मुनि अन्न का सेवन करने से भी प्राप्त