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अनेकान्त-56/1-2
हमारा चित्त-हमेशा बाहर दौड़ता रहता है। जीवन-ऊर्जा का 80% यो ही अकारण बाहर बहकर नष्ट हो जाता है इसे संघारित्र करने की क्षमता हम अपने अन्दर नही कर पाते हैं। केवल ध्यान और योग से इस जीवन ऊर्जा या चिन्मय (चैतन्य-शक्ति) को अपने भीतर रोक सकते हैं। जैसे उत्तल लेन्स (Convex Lens) से फोकस की गई प्रकाश-किरणें एक बिन्दु पर केन्द्रित होकर ऊर्जा का घनत्व बढ़ा देती है और उससे आग उत्पन्न हो जाती है, ऐसे ही ध्यान से जीवन ऊर्जा का उपयोग, विचारो के शुद्धीकरण और विकारों के परिशोधन के लिए कर सकते है।
ध्यान हमारी बाह्य कायिक/वाचनिक/सूक्ष्म मानसिक भाव वृत्तियो का सकुंचन है। जितनी जितनी बाह्य प्रवृत्तियों का सकुंचन या निरसन होगा, आत्मा की शक्ति का उतना ही विकाश होता जाता है।
ध्यान - जैनदर्शन की आत्मा है। यह चरित्र-शुद्धि का अतिम पड़ाव है। हम रोज रोज मंदिर क्यों जाते हैं?
वस्तुतः प्रतिमा की ध्यानस्थ वीतरागी छवि के दर्शन से हमें अपनी मौलिकता में लौटने का रोज संदेश मिलता है।
ध्यान एक ऐसा भाव रसायन है, जो जीवन की असत् हिंसात्मक/खोटी एव वर्जनीय काषायिक प्रवृत्तियों को दूर करने का एक अभिनव प्रयोग है। ध्यान और योग के बिना जीवन-परिवर्तन संभव नहीं है।
रोग के निदान में ध्यान और योग अद्भुत क्षमता रखते हैं। नार्थ वैरोलिना की एक यूनिवर्सिटी के डॉक्टरों ने पाया कि जो लोग मंदिर, उपासना गृह या किसी प्रार्थना/ध्यान स्थल पर नियमित जाकर वहाँ ध्यान करते हैं, वे इन स्थानों पर न जाने वालों की अपेक्षा कम बीमार पड़ते हैं।
अध्ययनों से एक बात और सिद्ध हुई है कि जो लोग सप्ताह में एक से अधिक बार धर्मस्थलों/तीर्थ स्थानों पर जाकर धर्मसेवा करते हैं, वे अन्य लोगो की अपेक्षा सात वर्ष अधिक जीते हैं।