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अनेकान्त-56/1-2
संसार में अनन्त पदार्थ हैं। अनन्त चेतन और अनन्त जड़। जड़ और चेतन के भेद की प्रीति ही सम्यकदर्शन का उद्देश्य है। मोह वश आत्मा पर पदार्थो को अपना मानता है। विभिन्न द्रव्यों के एक क्षेत्रावगाह होने से आत्मा का जड़ पुद्गल के साथ सम्बन्ध है। जिस प्रकार दही और चीनी के मिलाने से श्रीखण्ड बनता है और इस श्रीखण्ड मे मिश्रित दही एवं चीनी का एक रूप प्रतीत होता है उसी प्रकार एक क्षेत्रावगाह होने पर भिन्न भिन्न लक्षण वाले पुद्गल और आत्मा एक प्रतीत होते हैं। मोहनीय कर्म के उदय से रागद्वेष रूप परिणति होती है जिससे जीव का उपयोग विकारी हो जाता है। जब भेद ज्ञान उत्पन्न हो जाता है तब चैतन्य की शक्ति पुद्गल की शक्ति से भिन्न प्रतीत होने लगती है। ध म, अधर्म, आकाश, काल पुद्गल तथा अन्य जीव ये सब साधक के लिये पर द्रव्य हैं ये आत्मा में निमित्त नैमित्तिक भाव से प्रकाशमान हैं। जब आत्मा मे निजरस प्रकट हो जाता है और भेदबुद्धि का प्रकाश व्याप्त हो जाता है तो धर्म अधर्म आदि द्रव्य भी पर प्रतीत होने लगते हैं। ___ जब तक जीव निज सहज स्वरूप और क्रोधादि औपाधिक भावो में अन्तर नही जानता है। तब तक क्रोधादि भावो को ही निजस्वरूप जानने के कारण उनमें उसकी प्रवृत्ति होती है, इस प्रवृत्ति से पुदगल कर्म का आश्रव होता है। आश्रव से बन्ध और बन्ध से संसार परंपरा चलती है।'
आत्मा को अप्रतीति मिथ्यात्व है और प्रतीति सम्यकत्व। अप्रतीति से स्व और पर का भेद लुप्त हो जाता है और जीवात्मा पर को भी स्व समझने लगती है यही अज्ञान और दुःख का कारण है। जब आत्मा की प्रतीति हो जाती है तो वीतरागभाव और स्वरूप रमणता प्राप्त हो जाती है।
स्वप्रतीति के पश्चात् स्वज्ञान या सम्यकज्ञान होता है। सम्यकज्ञान के होते ही साधक सोचने लगता है कि अनन्त अतीत में भी जब पुद्गल का एक कण भी मेरा अपना नहीं हो सका तब अनन्त अनागत में वह मेरा कैसे हो सकेगा। मैं मैं हूं और पुद्गल पुद्गल है। आत्मा कभी पुद्गल रूप नहीं हो सकता और पुद्गल कभी आत्मरूप नहीं हो सकता। इस प्रकार का बोध ज्ञान ही सम्यक्ज्ञान है। इस विश्व के कण-कण में अनन्तकाल से पुद्गल की सत्ता