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अनेकान्त-56/1-2
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एकदेश प्रमाण हैं, अवधि आदि तीन ज्ञान पूर्णतःप्रमाण हैं। केवलज्ञान तो सर्वत्र प्रमाण है। श्लोकवार्तिक में कहा भी गया है
'स्वार्थे मतिश्रुतज्ञानं प्रमाणं देशतः स्थितम्।
अवध्यादि तु कार्येन केवलं सर्वतस्त्रिषु॥' 25 प्रामाण्यवाद
ज्ञान के प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य विषयक विचार को दार्शनिक जगत् मे प्रामाण्यवाद कहा जाता है। ज्ञान यथार्थ है या अयथार्थ इस विचार को न्याय में प्रामाण्यग्रह कहते हैं। प्रामाण्य स्वतः है अर्थात् ज्ञान ग्राहक सामग्री एव प्रामाण्य ग्राहक सामग्री एक है अथवा प्रामाण्य परतः है अर्थात् ज्ञान ग्राहक सामग्री पृथक् है और प्रामाण्यग्राहक सामग्री पृथक् है, प्रमुखतया प्रामाण्यवाद का विवेच्य है।
सांख्य दार्शनिकों का विचार है कि ज्ञान का प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य स्वतः होते हैं 26 अर्थात् जिस प्रमाण के द्वारा वस्तु का ज्ञान होता है, उसी प्रमाण के द्वारा उस ज्ञान की प्रामाणिकता या अप्रमाणिकता का भी निर्णय हो जाता है। मीमांसकों के अनुसार प्रामाण्य स्वतः और अप्रामाण्य परतः होता है। वेदान्त दर्शन की भी यही मान्यता है। कुछ बौद्ध अप्रामाण्य को स्वतः और प्रामाण्य को परत: मानते हैं जबकि कुछ प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनो को किञ्चित् स्वतः एवं किञ्चित् परतः स्वीकार करते है। न्याय-वैशेषिक दार्शनिक प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनो को परतः मानते हैं।
जैन दार्शनिको का कहना है कि उत्पत्ति की दशा में ज्ञान का प्रामाण्य एव अप्रामाण्य दोनों स्वतः होते हैं तथा ज्ञप्ति की दशा मे दोनों ही परतः होते हैं। यद्यपि तत्त्वार्थसत्रकार ने इस विषय में कोई उल्लेख नही किया है, किन्तु श्लोकवार्तिककार ने स्पष्टतया लिखा है
'अत्राभ्यासात्प्रमाणत्वं निश्चितं स्वत एव नः।
अनभ्यासे तु परतः इत्याहुः----------॥32 अर्थात् अभ्यास दशा मे ज्ञान स्वरूप का निर्णय करते समय ही युगपत्