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अनेकान्त-56/1-2
की योग्यता के बल से उत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष तथा इन्द्रिय एवं मन के आधीन ज्ञान को परोक्ष कहना सर्वथा युक्तियुक्त है। फिर भी राजवार्तिक मे आचार्य अकलंकदेव ने अवधि, मन:पर्यय एवं केवलज्ञान को प्रत्यक्ष मानकर भी इन्द्रिय एवं मन की सहायता से होने वाले मति ज्ञान को जो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है, वह लौकिक दृष्टि से कथन है, परमार्थतः नही। __ कुछ दार्शनिक अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति एवं अभाव आदि को भी प्रमाण का भेद स्वीकार करते है। इस विषय में तत्त्वार्थाधिगमभाष्य का कथन अवधेय है
'अनुमानोपमानागमार्थापत्तिसभवाभावानपि च प्रमाणानि इति केचिन्मन्यन्ते तत्कथमेतदिति? अत्रोच्यते-सर्वाण्येतानि मतिश्रुतयोरन्तर्भूतानीन्द्रियार्थ सन्निकर्षनिमित्तत्वात्। किं चान्यत् अप्रमाणान्येव वा। कुतः मिथ्यादर्शनपरिग्रहाद विपरीतोपदेशाच्च। मिथ्यादृष्टेर्हि मतिश्रुतावधयो नियतमज्ञानेमवेति वक्ष्यते।'
अर्थात् कोई अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति, संभव, अभाव को भी प्रमाण मानते है- यह कैसे माना जाय? इसका उत्तर देते हुए कहा है कि ये सभी प्रमाण मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। क्योंकि ये इन्द्रिय
और पदार्थ के सन्निकर्ष का निमित्त पाकर ही उत्पन्न होने वाले हैं। अन्यथा ये प्रमाण ही नही है क्योंकि मिथ्या दर्शन के सहचारी होने से तथा विपरीत उपदेश देने वाले होने से इनकी अप्रमाणता है। मिथ्यादृष्टि के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान अज्ञान ही होते हैं। प्रमाण के अन्यभेद
तत्त्वार्थसूत्र के प्रमुख टीकाकार आचार्य पूज्यपाद ने 'तत्प्रमाणं द्विविध स्वार्थं परार्थं च' कहकर प्रमाण के दो अन्य भेद किये है-स्वार्थ एवं परार्थ।” ज्ञानात्मक प्रमाण को स्वार्थ प्रमाण कहते हैं तथा वचनात्मक प्रमाण को परार्थ प्रमाण कहते हैं।18 आचार्य अकलंकदेव का कहना है कि ज्ञान स्वाधिगम हेतु होता है जो प्रमाण और नय रूप होता है। वचन पराधिगम हेतु होता है। वचनात्मक स्यावाद श्रुत के द्वारा जीवादि की प्रत्येक पर्याय सप्तभंगी रूप से