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अनेकान्त-56/1-2
जानी जाती है। 19
स्वार्थ एवं परार्थ प्रमाण की संगति
आचार्य पूज्यपाद ने स्वार्थ एवं परार्थ प्रमाणों की तत्त्वार्थसूत्रकार द्वारा मान्य प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों से संगति बैठाते हुए कहा है कि श्रुतज्ञान को छोड़कर शेष चारों मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान एवं केवलज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं। परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ प्रमाण भी है और परार्थ प्रमाण भी । 20 फलित यह है कि स्वार्थ तो पाँचों ही ज्ञान हैं, किन्तु परार्थ मात्र श्रुतज्ञान ही है। अन्य कोई भी ज्ञान परार्थ नही है। इस प्रकार स्वार्थ एवं परार्थ प्रमाणों का भी प्रत्यक्ष एव परोक्ष प्रमाणों में ही अन्तर्भाव है। उनकी पृथक् प्रमाणता स्वीकृत नही है।
अनुमान आदि प्रमाणों का पृथक् कथन न करने का कारण स्पष्ट करते हुए तत्त्वार्थवार्तिककार ने 'अनुमानादीनां पृथगनुपदेशः श्रुतावरोधात् '2" वार्तिक लिखा है। इसके व्याख्यान में वे स्पष्ट करते हैं कि अनुमान आदि का स्वप्रतिपत्ति काल में अनक्षर श्रुत में तथा परप्रतिपत्ति काल में अक्षर श्रुत में अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिए इनका पृथक् उपदेश नही किया गया है। आलापपद्धति आदि में जो केवलज्ञान को निर्विकल्पक तथा शेष को सविकल्पक कहा गया है 22 वे भी प्रत्यक्ष एव परोक्ष प्रमाण में ही अन्तर्भूत हैं। प्राचीन परम्परा तो पाँचों ज्ञानों को दो प्रमाण रूप मानने की ही है।
सम्यग्ज्ञान की प्रमाणता
आचार्य यतिवृषभ ने 'णाणं होदि पमाणं' 23 कहकर स्पष्टतया ज्ञान को प्रमाण माना है। श्लोकवार्तिक में कहा गया है
'मिथ्याज्ञानं प्रमाणं न सम्यगित्यधिकारतः । यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता । ' 24
अर्थात् क्योंकि सूत्र में सम्यक्त्व का अधिकार अध्याहृत है, इसलिए संशयादि से युक्त मिथ्याज्ञान प्रमाण नही है। जिस प्रकार से जहाँ पर अविसंवाद है, वहाँ पर उस प्रकार प्रमाणपना है।
यहाँ पर यह विशेष अवधेय है कि स्वविषय में भी मतिज्ञान एवं श्रुतुज्ञान