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अनंकान्त - 56/1-2
और वृष्णिदशा ये बारह उपांग कहे गये हैं। उत्तराध्ययन, पिण्डनिर्युक्ति और ओद्य नियुक्ति ये मूलसूत्र हैं। प्राकृत जैन कथा साहित्य
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा सेवानिवृत्त प्राध्यापकों को विशिष्ट अध्ययन - अनुसंधान के निमित्त दिया जाने वाला पुरस्कार ( फैलोशिप) डॉ. जैन को मिला था। 1970 में वे उसी के लिए प्राकृत कथा साहित्य पर अनुसंधान कार्य कर रहे थे। इसी बीच पं. दलसुख मालवणिया ने डा. जैन से श्री लालभाई दलपतभाई व्याख्यान माला के अन्तर्गत " प्राकृत जैन कथा साहित्य" विषय लेकर व्याख्यान देने हेतु अनुरोध किया, जिसे उन्होंने तुरन्त स्वीकार किया। उक्त व्याख्यान लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदावाद मे 78 एव 9 सितम्बर 1970 को सम्पन्न हुए। उ व्याख्यानो का मुद्रितरूप " प्राकृत जैन कथा साहित्य" नामक ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ कथाओ का संग्रह मात्र नही है, अपितु जैन कथा साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन भी है जो अपूर्व है। डॉ. जैन ने इस ग्रन्थ में विशेषरूप सं वसुदेवहिण्डी और बृहत्कथा संग्रह की कथाओ का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है। कथाओं के ऐतिहासिक अध्ययन की दृष्टि से यह ग्रन्थ बहुत उपादेय है। प्रस्तुति रूचिकर और भाषा सर्वग्राह्य है।
. दशवैकालिक,
आवश्यक.
अर्धमागधी जैनागमों की टीकाओ में उपलब्ध कथाओ के अलावा प्राकृत भाषा में रचित अनेक कथा ग्रन्थ हैं, जिनके आधार पर डॉ. जैन ने उक्त कथाग्रन्थ को संजोया है। लेखक की सूझ-बूझ का दिग्दर्शन ग्रन्थ कं प्रस्तुतीकरण में सहज ही प्राप्त हो जाता है। लेखक ने कथाओ का प्रमुख उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थो से जन सामान्य को परिचित कराना बतलाया है।
ग्रन्थ को लेखक ने चार अध्यायो मे प्रस्तुत किया है- 1. प्राकृत की लौकिक कथाएँ 2. प्राकृत की धर्मकथाएँ 3. वसुदेवहिण्डी और बृहत्कथा तथा 4 जैनकथा साहित्य : कहानियों का अनुपम भडार । पहले अध्याय में कथाओ का महत्व एवं उद्देश्य बतलाया है। यहाँ शृंगार प्रधान कामसंबंधी कथाओं मे अगड़दत्त का कामोपाख्यान सिंहकुमार और कुसुमावली की प्रेम कथा, कुवलयचन्द्र और