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तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण-नय मीमांसा
-डा. जयकुमार जैन जैनो की गीता कहे जाने वाले तत्त्वार्थसूत्र की महत्ता एवं प्रतिष्ठा जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों में कुछ पाठभेद एवं सूत्रभेद के साथ समान रूप से स्वीकृत है। पाठभेद एवं सूत्रभेद का प्रमुख कारण मुनि की नग्नता की स्वीकृति या अस्वीकृति है। इस ग्रन्थ में जैन तत्त्वज्ञान का सूत्रशैली में संक्षिप्त किन्तु विशद विवेचन हुआ है।
तत्त्वार्थसत्र में तत्त्वज्ञान के उपाय के रूप में जैन न्याय के प्रमुख अड़. प्रमाण और नय का भी वर्णन हुआ है। "प्रमाणनयैरधिगमः''' कहकर आचार्य उमास्वामी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पदार्थों का ज्ञान प्रमाण और नय से होता है। जितना भी सम्यग्ज्ञान है, वह प्रमाण और नयो मे विभक्त है। इनके अतिरिक्त पदार्थो के ज्ञान का दूसरा कोई साधन नही है। न्यायदीपिकाकार अभिनय धर्मभूषण यति ने स्पष्ट रूप से लिखा है- “प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादयः सम्यगधिगम्यन्ते। तद्व्यतिरेकेण जीवाद्याधिगमे प्रकारान्तरासंभवात्।। अर्थात् प्रमाण और नय से विवेचन किये गये जीव आदि समीचीन रूप से जाने जाते हैं। उनके अतिरिक्त जीवादि के ज्ञान में अन्य प्रकार सभव नही है। प्रमाण और नय की न्याय संज्ञा
न्याय शब्द नि उपसर्ग पूर्वक 'इण्' गत्यर्थक धातु से करण अर्थ में घञ् प्रत्यय करने पर निष्पन्न हुआ है। अभिनव धर्मभूषण यति ने न्याय का स्वरूप प्रमाण नयात्मक मानते हुए न्यायदीपिका नामक प्रकरण ग्रन्थ को प्रारंभ करने की प्रतिज्ञा की है-"प्रमाणनयात्मकन्यायस्वरूपप्रतिबोधकशास्त्राधिकारसम्पत्तये प्रकरणमिदमारभ्यते।" प्रमाण एवं नय को न्याय स्वीकारते हुए अन्यत्र भी कहा गया है-"नितरामियते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति न्यायः, अर्थ परिच्छेदकोपायः