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अनेकान्त-56/1-2
न्याय इत्यर्थः। स च प्रमाणनयात्मक एव।" अर्थात निश्चय से जिसके द्वारा पदार्थ जाने जाते हैं वह न्याय है और वह प्रमाण एवं नय रूप ही है। इससे स्पष्ट है कि जैन दर्शन में प्रमाण एवं नय की ही न्याय संज्ञा है।
पखण्डागम में ज्ञानमार्गणा का वर्णन करते हए ज्ञानमीमांसा में आठ ज्ञानो का वर्णन किया गया है। वहाँ पाँच ज्ञानों को सम्यग्ज्ञान तथा विपरीत मति, विपरीत श्रुत एवं विपरीत अवधि ज्ञानों को मिथ्याज्ञान कहा गया है। तत्त्वार्थसूत्र मे भी पाँच ज्ञान एवं तीन विपरीत ज्ञानों का पृथक्-पृथक् सूत्रों में वर्णन किया गया है
"मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्।'
"मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च।'' न्याय शास्त्र में विषय की दृष्टि से ज्ञान की प्रमाणता एवं अप्रमाणता का निश्चय किया जाता है अर्थात् जो ज्ञान घट को घट रूप जानता है, वह प्रमाण ज्ञान है और जो ज्ञान वस्तु को उस वस्तु रूप नहीं जानता है वह अप्रमाण ज्ञान है। मति, श्रुत एवं अवधिज्ञान वस्तु को वस्तु रूप भी जानते हैं तथा मिथ्यादृष्टि में होने पर ये वस्तु को अवस्तु/भिन्नवस्तु रूप भी जानते हैं अतः इन तीनों मे सम्यक्पना भी पाया जाता है और मिथ्यापना भी। तीन मिथ्याज्ञानों को भी ज्ञान में ग्रहण कर आठ ज्ञानों की निरुपणा उसी प्रकार कही गई है जैसे एक द्रोण गेहूँ में कुछ हिस्सा कूड़ा-करकट का होने पर भी उसे एक द्रोण गेहूँ ही कहा जाता है।
प्रमाण का लक्षण
जैन दर्शन में स्वपरप्रकाशक सम्यग्ज्ञान को प्रमाण माना गया है। कषायपाहुड में 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' कहकर पदार्थ के जानने के साधन को प्रमाण कहा गया है। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में यद्यपि प्रमाण का कोई सीधा लक्षण नही किया है, किन्तु 5 सम्यग्ज्ञानों को दो प्रमाण रूप कहकर "तत्प्रमाणे' सूत्र में प्रमाण शब्द का उल्लेख किया है। आचार्य पूज्यपाद ने प्रमाण शब्द की नियुक्ति करते हुए लिखा है-“प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन