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प्रथम शताब्दी में जैन धर्म का विकास
___ -रजनीश शुक्ल, उदयपुर जैन साहित्य का वाङ्मय विशाल है, भारतीय साहित्य में उसका एक विशिष्ट स्थान है। लोकोपकारी अनेक जैनाचार्यों ने अपने जीवन का बहत सा भाग उसकी रचना में व्यतीत किया है। जैन धर्म में बड़े-बड़े आचार्य हुए जो प्रबल तार्किक, दार्शनिक साहित्यिक तथा कवि थे। उन्होंने जैन धर्म के साथ साथ भारतीय साहित्य के इतर क्षेत्रों में भी कार्य किये। दर्शन, न्याय, व्याकरण, काव्य, नाटक, कथा, शिल्प, मंत्र-तत्र, वास्तु, वैद्यक आदि अनेक विषयों पर प्रचुर जैन साहित्य आज भी उपलब्ध है। जैन धर्म ने प्रारम्भ से ही अपने प्रचार के लिए विविध भाषाओं को अपनाया। विश्व मे वैदिक परम्परा की ही तरह श्रमण परम्परा भी अति प्राचीन काल से इस देश में प्रवर्तित है। इन्ही दोनो परम्पराओं के मेल से प्राचीन भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ है। उन्ही श्रमणों की परम्परा में भगवान ऋषभदेव से महावीर पर्यन्त तथा अद्यतन युग तक वहीं परम्परा चली आ रही है। प्रसिद्ध दार्शनिक राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन में लिखा है कि "जैन परम्परा ऋषभदेव से अपने धर्म की उत्पति होने का कथन करती है। जो बहुत शताब्दियों पूर्व हुए है। इस बात के साक्ष्य प्राप्त हो चुके है कि ईसवी पूर्व प्रथम शताब्दी मे तीर्थकर ऋषभदेव की पूजा होती थी। इस काल के विद्वानो को सन्देह नही होना चाहिए कि जैनधर्म वर्द्धमान
और पार्श्वनाथ से ही प्रचलित था। यजुर्वेद मे ऋषभदेव अजितनाथ, अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थकरों के नामों का निर्देश है।' भागवत पुराण का यह कथन कि ऋषभदेव ही जैनधर्म के संस्थापक थे, यह इस बात का समर्थन करता है कि महावीर से जैन धर्म की उत्पत्ति मानना गलत है।'
जब हम किसी के इतिहास की बात करते है तो महाभारत का यह कथन है कि "इतिहास दीपक तुल्य है। वस्तु के कृष्ण श्वेतादि यथार्थ रूप को जैसे दीपक प्रकाशित करता है, वैसे ही इतिहास मोह के आवरण को कर,