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अनेकान्त-56/1-2
सामान्य मनुष्यों को इस कथा को समझ पाना बहुत कठिन था। तरंगवती कथा के आधार पर ही नेमिचंद गणी ने 1642 गाथाओं में तरंगलोला कृति की रचना की है।
निर्वाण कलिका और प्रश्न प्रकाश-निवार्ण कलिका को दीक्षा और प्रतिष्ठा विधि विषयक तथा प्रश्न-प्रकाश को ज्योतिष विषयक ग्रंथ माना है। प्रभावक चरित्र आदि ग्रंथों में पादलिप्त सूरि के तीन उक्त ग्रंथो का ही उल्लेख है। राजा शासक वंश
विक्रमादित्य के शासन काल में अनेक बड़े आचार्य जैन परम्परा में हुए है। आचार्य हस्तिमल्ल जी ने लिखा है कि इस राजवंश में जैनधर्म का विकास निर्वाध गति से चलता रहा है तथा विद्वानो ने अनेक ग्रंथों में राजा विक्रमादित्य के राजवंश की यशोगाथा को बताया है। सातवाहन वंशी राजा हाल के समकालीन विद्वान गुणाढ्य ने पैशाची भाषा में वृहत्कथा नाम के ग्रंथ की रचना की थी। उसी के अनुसार संस्कृत भाषा में कथा सरित्सागर की रचना सोमदेव ने की इसमें भी विक्रमादित्य का विस्तार से वर्णन किया गया है।
राजा सातवहन हाल ने भी अपनी गाथा सप्तशती में विक्रमादित्य के दान की चर्चा करते हुए कहा है कि
संवाहणसुहरसतोसिएण, देन्तेण तुहकरे लक्खं। चलणेण विक्क माइच्च, चरिअमणुसिथ्ख तिस्सा।
-गाथासप्तशती 464 अर्थात् जिस प्रकार महादानी राजा विक्रमादित्य अपने सेवको द्वारा की हुई चरणसंवाहनादि, साधारण से भी संतुष्ट होकर उन्हें लाखो स्वर्ण मुद्राओं का दान कर देता था, उसी प्रकार विक्रमादित्य की उस दानशीलता का अनुकरण करते हुए लाख के लाल रस से रंगे हुए प्रियतमा के चरणों में प्रियतम द्वारा किये गये चरण संवाहन से प्रसन्न होकर प्रियतम के हाथों में लाख (अर्थात् लाख स्वर्णमुद्रओं के समान लाख का लाल रंग) दे डाला। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि गाथासप्तशती के रचयिता महाराजा हाल के ही पूर्वज के हाथों रणक्षेत्र में आहत हुए थे। और उसके फलस्वरूप उज्जयिनी लौटने पर