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अनेकान्त-56/1-2
आचार्य हस्तिमल्ल ने अपनी पुस्तक जैन धर्म का मौलिक इतिहास नामक ग्रन्थ में प्रथम शताब्दी के कुछ आचार्यों की तरफ संकेत किया है। जिनका परिचय निम्न प्रकार हैकालकाचार्य द्वितीय
जैन श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य कालक द्वितीय कालक के रूप में प्रसिद्ध हैं। वे क्रान्तिकारी आचार्य थे। उन्होंने पश्चिम ईरान एवं दक्षिण पूर्व में जावा, सुमात्रा तक की प्रलम्बलमान पद यात्रा की थी। आचार्यो की परम्परा में सुदूर विदेश यात्रा का सर्वप्रथम द्वार इन्होंने ही खोला। कालकाचार्य द्वितीय का समय प्रथम शताब्दी के पूर्वार्द्ध में माना गया है। इनका उल्लेख उत्तराध्ययन, वृहत्कल्प भाष्य, और अनेक ग्रन्थो में वर्णन प्राप्त होता है। जैनागम के अतिरिक्त ज्योतिष और निमित्त विद्या के विशिष्ट ज्ञाता थे। इस आचार्य ने पचमी के स्थान पर चतुर्थी तिथि को ही पर्युषण पर्व का आराधन प्रचलित किया था। इसका विवरण निशीथ चूर्णी नामक ग्रन्थ में प्राप्त होता है। आचार्य खपुट
द्वितीय कालकाचार्य के पश्चात् प्रभावक आचार्यो मे आर्य-खपुट का नाम विशेष प्रभावशाली माना गया है। इनके जन्मस्थान, माता-पिता आदि के सम्बन्ध में परिचय उपलब्ध नहीं होता। इनके जीवन की कतिपय प्रभावोत्पादक घटनाओं का उल्लेख जैनसाहित्य में दृष्टिगोचर होता है। आर्य खपुट का युग सम्भवत: विशिष्ट विद्याओं का युग रहा है। आवश्यक चूर्णि और निशीथ चूर्णि आदि में इन्हें विद्यारसिक एवं विद्याचक्रवर्ती जैसे विशेषणों से अभिहित किया गया है।
निशीथ चूर्णि भाग 3 पृ. 58 विक्रम की प्रथम शताब्दी में ही आचार्य वृद्धवादी का भी एक विशिष्ट स्थान रहा है। आपका जन्म गौड़देश के कौशलग्राम में इनका जन्म हुआ। विद्याधर वंश के आचार्य स्कन्दिलसूरि के उपदेश से विरक्त होकर उन्हीं के पास श्रमण दीक्षा ले ली।