________________
34
अनेकान्त-56/1-2
क्रमशः आगे बढ़ता है-रावण जन्म (7-8 पर्व), दक्षिण विजय (9-11 पर्व), हनुमान जन्म (15-18 पर्व), राजा दशरथ जन्म (19-21 पर्व), राजा दशरथ की विजय एव कैकयी से परिणय (21-25 पर्व), सीता जन्म (26-30 पर्व), वनभ्रमण में राम का वनवास (41 वाँ पर्व), युद्धों का वर्णन (42 वा पर्व), शम्बूक मरण एवं खरदूषण युद्ध, सीताहरण और अन्वेषण (45-55 पर्व), युद्ध (56-78 पर्व), उत्तरचरित के अन्तर्गत राज्यो का वितरण एवं सीता त्याग (71-103 पर्व)
और अग्नि परीक्षा (104-109 पर्व)-लक्षमण मृत्यु पर राम का उनके शव को लिए हुए छह मास तक घूमते रहना, अन्त में कृतान्त के जीव द्वारा, जो स्वर्ग मे देव हुआ था, राम को समझाने पर लक्ष्मण के शव की अन्त्येष्टिक्रिया और राम की जिनदीक्षा से लेकर तपश्चरण द्वारा मोक्ष।
इस सम्पूर्ण कथा मे राम की मूलकथा के चारो ओर अन्य घटनाये लता के समान उगती, बढ़ती और फैलती चलती हैं। कालक्रम से वि शृखलित घटनाओ को रीढ़ की हड्डी के समान दृढ़ और सुसगठित बनाया गया हैं। पात्रो के भाग्य बदलते रहते है, परिस्थितियाँ उन्हें कुछ से कुछ बना देती है। वे जीवनसंघर्ष मे जूझकर घर्षणशील रूप की अवतारणा करते है। रविषेण के द्वारा पद्मचरित के कथानक सूत्रो को कलात्मकढंग से संजोये रखना निस्संदेह प्रशंसनीय है। कथानक को सजाने में संदर्भो का संयोजन, वस्तु-व्यापारों के साथ उचित सतुलितरूप में नियोजन द्वारा रूपाकृति, अवसर-तत्त्व, योग्यता, सत्कार्यता आदि महत्त्वपूर्ण तत्त्व सम्पूर्ण रूप से अपने यथास्थान प्रयोग हुए है।
कलापक्ष कथानक का मुख्य आभूषण होता है, जिसमें छद, अलंकारों, रसो का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। रविषेण जी के इस पद्यचरित मे 41 प्रकार के छंदों का समावेश किया गया है। अनुष्टुप्र छंद सर्वाधिक 16440 है। 21 छन्द इस प्रकार आये हैं जिनका निर्धारण संभव नहीं। यथा 17/405-406, 42/37. 64, 77, 112/15, 114/54, 55, 123/170-179, 181, 1821 रविषेणाचार्य ने संगीतात्मक सगोत विकास के लिए छद योजना की है, अतः विशिष्ट भावों की अभिव्यक्ति विशिष्ट छंदों के द्वारा ही उपयुक्त होती है, लय की व्यवस्था छदो के निर्माण में सहायक होती है। यही कारण है कि रविषेण ने लय और स्वरो का सुन्दर निर्वाह किया है। प्रत्येक पर्व के अंत में छंद