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दशवैकालिक-५/२/१८३
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[१८३-१८८] गोचरी के लिये गया हुआ संयमी कहीं भी न बैठे और न खड़ा रह कर भी धर्म- कथा का प्रबन्ध करे, अर्गला, परिघ, द्वार एवं कपाट का सहारा लेकर खड़ा न रहे, भोजन अथवा पानी के लिए आते हुए या गये हुए श्रमण, ब्राह्मण, कृपण अथवा वनीपक को लांघ कर प्रवेश न करे और न आँखों के सामने खड़ा रहे । किन्तु एकान्त में जा कर वहाँ खड़ा हो जाए । उन भिक्षाचरों को लांघ कर घर में प्रवेश करने पर उस बनीपक, दाता अथवा दोनों को अप्रीति उत्पन्न हो सकती है, अथवा प्रवचन की लघुता होती है । किन्तु गृहस्वामी द्वारा उन भिक्षाचारों को देने का निषेध कर देने पर अथवा दे देने पर तथा वहाँ से उन याचकों के हट जाने पर संयमी साधु उस घर में प्रवेश करे ।
[१८९-१९२] उत्पल, पद्म, कुमुद या मालती अथवा अन्य किसी सचित्त पुष्प का छेदन करके, सम्मर्दन कर भिक्षा देने लगे तो वह भक्त-पान संयमी साधु के लिए अकल्पनीय है । इसलिए मुनि निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए अग्राह्य है ।
[१९३-१९४] अनिवृत कमलकन्द, पलाशकन्द, कुमुदनाल, उत्पलनाल, कमल के तन्तु, सरसों की माल, अपक्व इक्षुखण्ड, वृक्ष, तृण और दूसरी हरी वनस्पति का कच्चा नया प्रवाल
[१९५] जिसके बीज न पके हों, ऐसी नई अथवा एक बार भुनी हुई कच्ची फली को साधु निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मैं ग्रहण नहीं करता ।
[१९६-१९९] इसी प्रकार बिना उबाला हुआ बेर, वंश-शरीर, काश्यपनालिका तथा अपक्क तिलपपड़ी और कदम्ब का फल चाहिए । चावलों का पिष्ट, विकृत धोवन, निर्वृत जल, तिलपिष्ट, पोइ-साग और सरसों की खली, कपित्थ, बिजौरा, मूला और मूले के कन्द के टुकड़े, मन से भी इच्छा न करे । फलों का चूर्ण, बीजों का चूर्ण, बिभीतक तथा प्रियालफल, इन्हें अपक्क जान कर छोड़ दे ।
[२००] भिक्षु समुदान भिक्षाचर्या करे । (वह) उच्च और नीच सभी कुलों में जाए, नीचकुल को छोड़ कर उच्चकुल में न जाए ।
[२०१] पण्डित साधु दीनता से रहित होकर भिक्षा की एषणा करे । भिक्षा न मिले तो विषाद न करे । सरस भोजन में अमूर्च्छित रहे । मात्रा को जानने वाला मुनि एषणा में रत रहे ।
[२०२] गृहस्थ (पर) के घर में अनेक प्रकार का प्रचुर खाद्य तथा स्वाद्य आहार होता है; किन्तु न देने पर पण्डित मुनि कोप न करे; परन्तु ऐसा विचार करे कि यह गृहस्थ है, दे या न दे, इसकी इच्छा ।
२०३] संयमी साधु प्रत्यक्ष (सामने) दीखते हुए भी शयन, आसन, वस्त्र, भक्त और पान, न देने वाले पर क्रोध न करे ।
[२०४] स्त्री या पुरुष, बालक या वृद्ध वन्दना कर रहा हो, तो उससे किसी प्रकार की याचना न करे तथा आहार न दे तो उसे कठोर वचन भी न कहे ।
२०५] जो वन्दना न करे, उस पर कोप न करे, वन्दना करे तो उत्कर्ष न लाएइस प्रकार भगवदाज्ञा का अन्वेषण करने वाले मुनि का श्रामण्य अखण्ड रहता है ।
२०६-२०७] कदाचित् कोई साधु सरस आहार प्राप्त करके इस लोभ से छिपा लेता