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उत्तराध्ययन- २/५४
अदीनभाव से प्यास को सहन करे ।
[५५-५६] विरक्त और अनासक्त होकर विचरण करते हुए मुनि को शीतकाल में शीत का कष्ट होता है है, फिर भी आत्मजयी जिन शासन को समझकर स्वाध्यायादि के प्राप्त काल का उल्लंघन न करे । शीत लगने पर मुनि ऐसा न सोचे कि "मेरे पास शीत-निवारण के योग्य साधन नहीं है । शरीर को ठण्ड से बचाने के लिए छवित्राण - वस्त्र भी नहीं हैं, तो मैं क्यों न अग्नि का सेवन कर लूँ ।"
[ ५७-५८ ] गरम भूमि, शिला एवं लू आदि के परिताप से, प्यास की दाह से, ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी मुनि सात के लिए आकुलता न करे । स्नान को इच्छा न करे । जल से शरीर को सिंचित न करे, पंखे आदि से हवा न करे । [५९-६०] महामुनि डांस तथा मच्छरों का उपद्रव होने पर भी समभाव रखे । जैसे युद्ध के मोर्चे पर हाथी बाणों की परवाह न करता हुआ शत्रुओं का हनन करता है, वैसे मुनि परीपों की परवाह न करते हुए रोग-द्वेष रूपी अन्तरंग शत्रुओं का हनन करे । दंशमशक परीषह का विजेता साधक दंश-मशकों से संत्रस्त न हो, उन्हें हटाए नहीं । उनके प्रति मन में भी द्वेष न लाए । मांस काटने तथा रक्त पीने पर भी उपेक्षा भाव रखे, उनको मारे नहीं । [६१-६२] “वस्त्रों के अति जीर्ण हो जाने से अब मैं अचेलक हो जाऊंगा । अथवा नए वस्त्र मिलने पर मैं फिर सचेलक हो जाऊंगा" - मुनि ऐसा न सोचे । “विभिन्न एवं विशिष्ट परिस्थितियों के कारण मुनि कभी अचेलक होता है, कभी सचेलक । दोनों ही स्थितियां संयम धर्म के लिए हितकारी हैं" - ऐसा समझकर मुनि खेद न करे ।
[६३-६४] गांव से गांव विचरण करते हुए अकिंचन अनगार के मन में यदि कभी संयम के प्रति अरति अरुचि, उत्पन्न हो जाए तो उस परीषह को सहन करे । विषयासक्ति से विरक्त रहनेवाला, आत्मभाव की रक्षा करनेवाला, धर्म में रमण करनेवाला, आरम्भ प्रवृत्ति से दूर रहनेवाला निरारम्भ मुनि अरति का परित्याग कर उपशान्त भाव से विचरण करे ।
[६५-६६ ] 'लोक में जो स्त्रियाँ हैं, वे पुरुषों के लिए बंधन है' ऐसा जो जानता है, उसका श्रामण्य - सुकृत होता है । ' ब्रह्मचारी के लिए स्त्रियाँ पंक समान हैं' - मेधावी मुनि इस बात को समझकर किसी भी तरह संयमी जीवन का विनिघात न होने दे, किन्तु आत्मस्वरूप की खोज करते ।
नगर,
[६७-६८] शुद्ध चर्या से प्रशंसित मुनि एकाकी ही परीषहों को पराजित कर गाँव, निगम अथवा राजधानी में विचरण करे । भिक्षु गृहस्थादि से असमान होकर विहार करे, परिग्रह संचित न करे, गृहस्थों में निर्लिप्त रहे । सर्वत्र अनिकेत भाव से मुक्त होकर परिभ्रमण करे |
[६९-७०] श्मशान में, सूने घर में और वृक्ष के मूल में एकाकी मुनि अचपल भाव से बैठे । आसपास के अन्य किसी प्राणी को कष्ट न दे । उक्त स्थानों में बैठे हुए यदि उपसर्ग आ जाए तो उसे समभाव से धारण करे । अनिष्ट की शंका से भयभीत होकर वहाँ से उठकर अन्य स्थान पर न जाए ।
[७१-७२] ऊंची-नीची शय्या ( उपाश्रय) के कारण तपस्वी एवं सक्षम भिक्षु संयममर्यादा को भंग न करे, पाप दृष्टिवाला साधु ही हर्ष शोक से अभिभूत होकर मर्यादा तोड़ता