Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 147
________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद १४६ इकत्तीस सागरोपम और जघन्य तीस सागरोपम है । [१७०६-१७०७] विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की उत्कृष्ट आयुस्थिति तैंतीस सागरोपम और जघन्य इकत्तीस सागरोपम है । महाविमान सर्वार्थसिद्ध के देवों की अजघन्य - अनुत्कृष्ट आयु-स्थिति तैंतीस सागरोपम है । [१७०८-१७०९] देवों की पूर्व-कथित जो आयु- स्थिति है, वही उनकी जघन्य और उत्कृष्ट का स्थिति है । देव के शरीर को छोड़कर पुनः देव के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है । [ १७१०] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद होते हैं । [१७११-१७१२] इस प्रकार संसारी और सिद्ध जीवों का व्याख्यान किया गया । रूपी और अरूपी के भेद से दो प्रकार के अजीवों का भी व्याख्यान हो गया । जीव और अजीव के व्याख्यान को सुनकर और उसमें श्रद्धा करके ज्ञान एवं क्रिया आदि सभी नयों से अनुमत संयम में मुनि रमण करे । [१७१३-१७१४] तदनन्तर अनेक वर्षो तक श्रामण्य का पनल करके मुनि इस अनुक्रम से आत्मा की संलेखना - विकारों से क्षीणता करे । उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की होती है । मध्यम एक वर्ष की और जघन्य छह मास की है । [१७१५-१७१८] प्रथम चार वर्षों में दुग्ध आदि विकृतियों का त्याग करे, दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार का तप करे । फिर दो वर्षों तक एकान्तर तप करे । भोजन के दिन आचाम्ल करे । उसके बाद ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महिनों तक कोई भी अतिविकृष्ट तप न करे । उसके बाद छह महिने तक विकृष्ट तप करे । इस पूरे वर्ष में परिमित आचाम्ल करे । बारहवें वर्ष में एक वर्ष तक निरन्तर आचाम्ल करके फिर मुनि पक्ष या एक मास का अनशन करे । [१७१९] कांदर्पी, आभियोगी, किल्विपिकी, मोही और आसुरी भावनाएँ दुर्गति देने वाली हैं । ये मृत्यु के समय में संयम की विराधना करती है । I [१७२०-१७२२] जो मरते समय मिथ्या - दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान से युक्त हैं और हिंसक हैं, उन्हें बोधि बहुत दुर्लभ है । जो सम्यग् - दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान से रहित हैं, शुक् लेश्या में अवगाढ- प्रविष्ट हैं, उन्हें बोधि सुलभ है । जो मरते समय मिथ्या - दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान सहित हैं, कृष्ण लेश्या में अवगाढ हैं, उन्हें बोधि बहुत दुर्लभ है । [१७२३-१७२४] जो जिन-वचन में अनुरक्त हैं, जिनवचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और रागादि से असंक्लिष्ट होकर परीतसंसारी होते हैं । जो जीव जिन-वचन से अपरिचित हैं, वे बेचारे अनेक बार बाल-मरण तथा अकाम-मरण से मरते रहेंगे । [१७२५] जो अनेक शास्त्रों के वेत्ता, आलोचना करने वालों को समाधि उत्पन्न करने वाले और गुणग्राही होते हैं, वे इसी कारण आलोचना सुनने में समर्थ होते हैं । [१७२६ - १७२९] जो कन्दर्प, कौत्कुच्य करता है, तथा शील, स्वभाव, हास्य और विकथा से दूसरों को हँसाता है, वह कांदर्पी भावना का आचरण करता है । जो सुख, घृतादि रस और समृद्धि के लिए मंत्र, योग और भूति कर्म का प्रयोग करता है, वह अभियोगी भावना

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