Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 12
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 145
________________ १४४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद जघन्य अन्तर्मुहर्त की है । जलचरों की काय-स्थिति उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । जलचर के शरीर को छोड़कर पुनः जलचर के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है । [१६४२] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं । [१६४३-१६४५] स्थलचर जीवों के दो भेद हैं-चतुष्पद और परिसर्प । चतुष्पद चार प्रकार के हैं, एकखुर, द्विखुर, गण्डीपद और सनखपद । परिसर्प दो प्रकार के हैं-भुजपरिसर्प, उरःपरिसर्प इन दोनों के अनेक प्रकार हैं । [१६४६-१६५०] वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से स्थलचर जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा | प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं । स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं । उनकी आयु स्थिति उत्कृष्ट तीन पल्योपम की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम और जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-स्थलचर जीवों की कायस्थिति है । और उनका अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है ।। [१६५१-१६५६] खेचर जीव के चार प्रकार हैं-चर्मपक्षी, रोम पक्षी, समुद्ग पक्षी और विततपक्षी । वे लोक के एक भाग में व्याप्त है, सम्पूर्ण लोक में नहीं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से खेचर जीवों के कालविभाग का कथन करूँगा | प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं । स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । उनकी आयु स्थिति उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-खेचर जीवों की कायस्थिति है । और उनका अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है । [१६५७] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं । [१६५८-१६६१] मनुष्य दो प्रकार के हैं-संमूर्छिम और गर्भोत्पन्न । अकर्म-भूमिक, कर्म-भूमिक और अन्त ीपक ये तीन भेद गर्ब से उत्पन्न मनुष्यों के हैं । कर्म-भूमिक मनुष्यों के पन्द्रह, अकर्म-भूमिक मनुष्यों के तीस और अन्तर्कीपक मनुष्यों के अट्ठाईस भेद हैं । सम्मूर्छिम मनुष्यों के भेद भी इसी प्रकार हैं । वे सब भी लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । [१६६२-१६६५] उक्त मनुष्य प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं, स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । मनुष्यों की आयु-स्थिति उत्कृष्ट तीन पल्योपम और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम और जघन्य अन्तर्मुहूर्तमनुष्यों की काय-स्थिति है उनका अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है । [१६६६] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं | [१६६७-१६६८] भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये देवों के चार भेद हैं । भवनवासी देवों के दस, व्यन्तर देवों के आठ, ज्योतिष्क देवों के पाँच और वैमानिक देवों के दो भेद हैं । [१६६९] असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, वायुकुमार और स्तनितकुमार-ये दस भवनवासी देव हैं । [१६७०] पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व-ये आठ

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