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नन्दीसूत्र-१५०
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व्यावर्त्त, एवंभूत, द्विकावर्त, वर्तमानपद, समभिरूढ़, सर्वतोभद्र, प्रशिष्य, दुष्प्रतिग्रह । ये बाईस सूत्र छिन्नच्छेद-नयवाले, स्वसमय सूत्र परिपाटी के आश्रित हैं । यह ही बाईस सूत्र आजीविक गोशालक के दर्शन की दृष्टि से अच्छिन्नच्छेद नय वाले हैं । इसी प्रकार से ये ही सूत्र त्रैराशिक सूत्र परिपाटी से तीन नय वाले हैं, स्वसमयसिद्धान्त की दृष्टि से चतुष्क नय वाले हैं । इस प्रकार पूर्वापर सर्व मिलकर ८८ सूत्र हो जाते हैं । यह कथन तीर्थंकर और गणधरों ने किया है ।
पूर्वगत-दृष्टिवाद चौदह प्रकार का है, उत्पादपूर्व, अग्रायणीयपूर्व, वीर्यप्रवादपूर्व, अस्तिनास्ति प्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, कर्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, विद्यानुवादप्रवादपूर्व, अबध्यपूर्व, प्राणायुपूर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकबिन्दुसारपूर्व । उत्पादपूर्व में दस वस्तु और चार चूलिका वस्तु, अग्रायणीय में चौदह वस्तु
और बारह चूलिका वस्तु, वीर्यप्रवाद में आठ वस्तु और आठ चूलिका वस्तु, अस्तिनास्तिप्रवाद में अठारह वस्तु और दस चूलिका वस्तु, ज्ञानप्रवाद में बारह वस्तु, सत्यप्रवाद में दो वस्तु हैं, आत्मप्रवाद में सोलह वस्तु, कर्मप्रवाद में तीस वस्तु, प्रत्याख्यान में बीस वस्तु, विद्यानुवाद में पन्द्रह वस्तु, अन्नध्य में बारह वस्तु, प्राणायु में तेरह वस्तु, क्रियाविशाल में तीस वस्तु और लोकबिन्दुसारपूर्व में पच्चीस वस्तु है ।।
[१५१-१५३] पहले में १०, दूसरे में १४, तीसरे में ८, चौथे में १८, पाँचवें में १२, छठे में २, सातवें में १६, आठवें में ३०, नवमें में २०, दसवें में १५, ग्यारहवें में १२, बारहवें में १३, तेरहवें में ३० और चौदहवें में २५ वस्तु हैं । आदि के चार पूर्वो में क्रम सेप्रथम में ४, द्वितीय में १२, तृतीय में ८ और चतुर्थ पूर्व में १० चूलिकाएँ हैं । शेष पूर्वो में चूलिकाएँ नहीं हैं ।
[१५४] भगवन् ! अनुयोग कितने प्रकार का है ? दो प्रकार का है, मूलप्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग । मूलप्रथमानुयोग में अरिहन्त भगवन्तों के पूर्व भवों, देवलोक में जाना, आयुष्य, च्यवनकर तीर्थंकर रूप में जन्म, जन्माभिषेक तथा राज्याभिषेक, राज्यलक्ष्मी, प्रव्रज्या, घोर तपश्चर्या, केवलज्ञान की उत्पत्ति, तीर्थ की प्रवृत्ति, शिष्य-समुदाय, गण, गणधर, आर्यिकाएँ, प्रवर्तिनीएँ, चतुर्विध संघ का परिमाण, जिन, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी एवं सम्यक्श्रुतज्ञानी, वादी, अनुत्तरगति और उत्तरवैक्रियधारी मुनि यावन्मात्र मुनि सिद्ध हुए, मोक्ष-मार्ग जैसे दिखाया, जितने समय तक पादपोपगमन संथारा किया, जिस स्थान पर जितने भक्तों का छेदन किया, अज्ञान अंधकार के प्रवाह से मुक्त होकर जो महामुनि मोक्ष के प्रधान सुख को प्राप्त हुए इत्यादि। इनके अतिरिक्त अन्य भाव भी मूल प्रथमानुयोग में प्रतिपादित किये गए हैं ।
. गण्डिकानुयोग में कुलकरगण्डिका, तीर्थंकरगण्डिका, चक्रवर्तीगण्डिका, दशारगंडिका, बलदेवगंडिका, वासुदेवगण्डिका, गणधरगण्डिका, भद्रबाहुगण्डिका, तपःकर्मगण्डिका, हरिवंशगण्डिका, उत्सर्पिणीगण्डिका, अवसर्पिणीगण्डिका, चित्रान्तरगण्डिका, देव, मनुष्य, तिर्यंच, नरकगति, इनमें गमन और विविध प्रकार से संसार में पर्यटन इत्यादि गण्डिकाएँ हैं ।
चूलिका क्या है ? आदि के चार पूर्वो मे चूलिकाएँ हैं, शेप पूर्वो में चूलिकाएँ नहीं हैं।
दृष्टिवाद की संख्यात वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ, संख्यात प्रतिपत्तियाँ,