________________
२३४
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
-
प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन करने को स्वसमयवक्तव्यता कहते हैं । जिस वक्तव्यता में परसमय का कथन यावत् उपदर्शन किया जाता है, उसे परसमयवक्तव्यता कहते हैं । जिस वक्तव्यता में स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त दोनों का कथन यावत् उपदर्शन किया जाता है, उसे स्वसमय परसमय वक्तव्यता कहते हैं ।
( इन तीनों वक्तव्यताओं में से) कौन नय किस वक्तव्यता को स्वीकार करता है ? नैगम, संग्रह और व्यवहार नय तीनों प्रकार की वक्तव्यता को स्वीकार करते हैं । ऋजुसूत्रनय स्वसमय और परसमय को ही मान्य करता है । क्योंकि स्वसमयवक्तव्यता प्रथम भेद स्वसमयवक्तव्यता में और परसमय की वक्तव्यता द्वितीय भेद परसमयवक्तव्यता में अन्तर्भूत् हो जाती है । इसलिए वक्तव्यता के दो ही प्रकार हैं। तीनों शब्दनय एक स्वसमयवक्तव्यता को ही मान्य करते हैं । उनके मतानुसार परसमयवक्तव्यता नहीं है । क्योंकि परसमय अनर्थ, अहेतु, असद्भाव, अक्रिय, उन्मार्ग, अनुपदेश और मिथ्यादर्शन रूप है । इसलिए स्वसमय की वक्तव्यता ही है ।
[३१९-३२१] भगवन् ! अर्थाधिकार क्या है ? (आवश्यकसूत्र के ) जिस अध्ययन का जो अर्थ वर्ण्य विषय है उसका कथन अर्थाधिकार कहलाता है । यथा - सावद्ययोगविरति, उत्कीर्तन - स्तुति करना है । तृतीय अध्ययन का अर्थ गुणवान् पुरुषों को वन्दना, नमस्कार करना है । चौथे में आचार में हुई स्खलनाओं की निन्दा करने का अर्थाधिकार है । कायोत्सर्ग अध्ययन में व्रणचिकित्सा करने रूप अर्थाधिकार है । प्रत्याख्यान अध्ययन का ) गुण धारण करने रूप अर्थाधिकार है ।
[३२२] समवतार क्या है ? समवतार के छह प्रकार हैं, जैसे- नामसमवतार, स्थापनासमवतार, द्रव्यसमवतार, क्षेत्रसमवतार, कालसमवतार और भावसमवतार । नाम और स्थापना (समवतार) का वर्णन पूर्ववत् जानना | द्रव्यसमवतार दो प्रकार का कहा है-आगमद्रव्यसमवतार, नो आगमद्रव्यसमवतार । यावत् आगमद्रव्यसमवतार का तथा नोआगमद्रव्यसमवतार के भेद ज्ञायकशरीर और भव्यशरीर नोआगमद्रव्यसमवतार का स्वरूप पूर्ववत् जानना ।
ज्ञायकशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यसमवतार कितने प्रकार का है ? तीन प्रकार का हैआत्मसमवतार, परसमवतार, तदुभवसमवतार । आत्मसमवतार की अपेक्षा सभी द्रव्य आत्मभावमें ही रहते हैं, परमसमवतारापेक्षया कुंड में बेर की तरह परभाव में रहते हैं तथा तदुभयसमवतार से (सभी द्रव्य) घर में स्तम्भ अथवा घट में ग्रीवा की तरह परभाव तथा आत्मभाव - दोनों में रहते हैं । अथवा ज्ञायकशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यसमवतार दो प्रकार का है- आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार । जैसे आत्मसमवतार से चतुष्षष्टिका आत्मभाव में रहती है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा द्वात्रिंशिका में भी और अपने निजरूप में भी रहती है । द्वात्रिंशिका आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में और उभयसमवतार की अपेज्ञा षोडशिका कमें भी रहती है और आत्मभाव में भी रहती है । पोडशिका आत्मसमवतार से आत्मभाव में समवतीर्ण होती है और तदुभयसमवतार की अपेक्षा अष्टभागिका में भी तथा अपने निजरूप में भी रहती है । अष्टभागिका आत्मसमवतार की अपेक्षा आत्मभाव में तथा तदुभयसमवतार की अपेक्षा चतुर्भागका में भी समवतरित होती है और अपने निज स्वरूप में भी समवतरित होती है ।