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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
अथवा वर्ण, गन्ध, रस आदि को जानने का कारण है । वह अनन्त, शाश्वत तथा अप्रतिपाति है । ऐसा यह केवलज्ञान एक प्रकार का ही है ।
[९१] केवलज्ञान के द्वारा सब पदार्थों को जानकर उनमें जो पदार्थ वर्णन करने योग्य होते हैं, उन्हें तीर्थंकर देव अपने प्रवचनों में प्रतिपादन करते हैं । वह उनका वचनयोग होता है अर्थात् वह अप्रदान द्रव्यश्रुत है ।
[९२] केवलज्ञान का विषय सम्पूर्ण हुआ और प्रत्यक्ष भी समाप्त हुआ ।
[९३] वह परोक्षज्ञान कितने प्रकार का है ? दो प्रकार का । यथा-आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान । जहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान है वहाँ पर श्रुतज्ञान भी होता है । जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान भी होता है । ये दोनों ही अन्योन्य अनुगत हैं । जो सन्मुख आए हुए पदार्थों को प्रमाणपूर्वक अभिगत करता है वह आभिनिबोधिक ज्ञान है, किन्तु जो सुना जाता है वह श्रुतज्ञान है । श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है किन्तु मतिज्ञान श्रुत-पूर्वक नहीं होता ।
[९४] सामान्य रूप से मति, मतिज्ञान और मति-अज्ञान दोनों प्रकार का है । परन्तु विशेष रूप से वही मति सम्यक्दृष्टि का मतिज्ञान है और मिथ्यादृष्टि की मति, मति-अज्ञान होता है । इसी प्रकार विशेषता रहित श्रुत, श्रुतज्ञान और श्रुत-अज्ञान उभय रूप है । विशेषता प्राप्त वही सम्यक्दृष्टि का श्रुत, श्रुतज्ञान और मिथ्यादृष्टि का श्रुत-अज्ञान होता है ।
[९५] भगवन् ! वह आभिनिबोधिक ज्ञान किस प्रकार का है ? दो प्रकार का, श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित । अश्रुतनिश्रित चार प्रकार का है । यथा
[९६] औत्पत्तिकी:- सहसा जिसकी उत्पत्ति हो, वैनयिकी:-विनय से उत्पन्न, कर्मजा, अभ्यास से उत्पन्न, पारिणामिकी उम्र के परिपाक से उत्पन्न । ये चार प्रकार की बुद्धियाँ शास्त्रकारों ने वर्णित की हैं ।
[९७] जिस बुद्धि के द्वारा पहले बिना देखे और बिना सुने ही पदार्थों के विशुद्ध अर्थ को तत्काल ही ग्रहण कर लिया जाता है और जिससे अव्याहत-फल का योग होता है, वह औत्पत्तिकी बुद्धि है ।
[९८-१००] भरत, शिला, कुर्कुट, तिल, बाल, हस्ति, अगड, वनखंड, पायस, अतिम, पत्र, खाडहिल, पंचपियर, प्रणितवृक्ष, क्षुल्लक, पट, काकीडा, कौआ, उच्चारपरिक्षा, हाथी, भांड, गोलक, स्तम्भ, खुड्डग, मार्ग, स्त्री, पति, पुत्र, मधुसिक्थ, मुद्रिका, अंक, सुवर्णमहोर, भिक्षुचेटक, निधान, शिक्षा, अर्थशास्त्र, इच्छामह, लाख-यह सर्व औत्पातिकी बुद्धि के दृष्टान्त है । (कथाविस्तार वृत्तिग्रन्थो से जानना ।)
[१०१] विनय से पैदा हुई बुद्धि कार्य भार वहन करने में समर्थ होती है । धर्म, अर्थ, काम का प्रतिपादन करने वाले सूत्र तथा अर्थ का प्रमाण-सार ग्रहण करनेवाली है तथा वह विनय से उत्पन्न बुद्धि इस लोक और परलोक में फल देनेवाली होती है ।
[१०२-१०३] निमित्त, अर्थशास्त्र, लेख, गणित, कूप, अश्व, गर्दभ, लक्षण, ग्रंथि, अगड, रथिक, गणिका, शीताशाटी, नीव्रोदक, बैलों की चोरी, अश्व का मरण, वृक्ष से गिरना। ये वैनयिकी बुद्धि के उदाहरण हैं ।
[१०४] -उपयोग से जिसका सार देखा जाता है, अभ्यास और विचार से जो विस्तृत