________________
नन्दीसूत्र-१४०
१६३
हैं । पद-परिणाम ३६०० है । इसमें संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस
और अनन्त स्थावर हैं । धर्मास्तिकाय आदि शाश्वत, प्रयत्नजन्य, या प्रकृतिजन्य, निवद्ध एवं हेतु आदि द्वारा सिद्ध किए गए जिन-प्रणीत भाव कहे जाते हैं तथा इनका प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है । सूत्रकृत का अध्ययन करने वाला तद्रूप अर्थात् सूत्रगत विषयों में तल्लीन होने से तदाकार आत्मा, ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार से इस सूत्र में चरण-करण की प्ररूपणा कही जाती है ।
[१४१] -भगवन् ! स्थानाङ्गश्रुत क्या है ? स्थान में अथवा स्थान के द्वारा जीव, अजीव और जीवाजीव की स्थापना की जाती है । स्वसमय, परसमय एवं उभय पक्षों की स्थापना की जाती है । लोक, अलोक और लोकालोक की स्थापना की जाती है । स्थान में या स्थान के द्वारा टङ्क, पर्वत, कूट, पर्वत, शिखर वाले पर्वत, पर्वत के ऊपर हस्तिकुम्भ की आकृति सदृश्य कुब्ज, कुण्ड, हृद, नदियों का कथन है । स्थान में एक से लेकर दस तक वृद्धि करते हुए भावों की प्ररूपणा है । स्थान सूत्र में परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ-छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं | वह तृतीय अङ्ग है । इसमें एक श्रुतस्कंध और दस अध्ययन हैं तथा इक्कीस उद्देशनकाल और इक्कीस ही समुद्देशनकाल हैं । पदों की संख्या ७२००० है । संख्यात अक्षर तथा अनन्त गम हैं । अनन्त पर्याय, परिमित-त्रस और अनन्त स्थावर हैं । शाश्वत-कृतनिबद्ध-निकाचित जिनकथित भाव कहे जाते हैं । उनका प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन
और उपदर्शन किया गया है । स्थानसूत्र का अध्ययन करनेवाला तदात्मरूप, ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार उक्त अङ्ग में चरण-करणानुयोग की प्ररूपणा की गई है ।
[१४२] -समवायश्रुत का विषय क्या है ? समवाय सूत्र में यथावस्थित रूप से जीवों, अजीवों और जीवाजीवों का आश्रयण किया गया है । स्वदर्शन, परदर्शन और स्वपरदर्शन का आश्रयण किया गया है । लोक अलोक और लोकालोक आश्रयण किये जाते हैं । समवाय में एक से लेकर सौ स्थान तक भावों की प्ररूपणा है और द्वादशाङ्ग गणिपिटक का संक्षेप में परिचय-आश्रयण है । समवाय में परिमित वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ तथा संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं । यह चौथा अङ्ग है । एक श्रुतस्कंध, एक अध्ययन, एक उद्देशनकाल और एक समुद्देशनकाल है । इसका पदपरिमाण १४४००० हजार है । संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस, अनन्त स्थावर तथा शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित्त जिन-प्ररूपित भाव, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन
और उपदर्शन से स्पष्ट किये गए हैं । समवाय का अध्ययन करने वाला तदात्मरूप, ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार समवाय में चरण-करण की प्ररूपणा है ।
[१४३] व्याख्याप्रज्ञप्ति में क्या वर्णन है ? व्याख्याप्रज्ञप्ति में जीवों की, अजीवों की तथा जीवाजीवों की व्याख्या है । स्वसमय, परसमय और स्व-पर-उभय सिद्धान्तों की तथा लोक अलोक और लोकालोक के स्वरूप का व्याख्यान है । परिमित वाचनाएँ, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ-श्लोक विशेष, संख्यात नियुक्तियां, संख्यात संग्रहणियां और संख्यात प्रतिपत्तियां हैं । यह पाँचवाँ अंग है । एक श्रुतस्कंध, कुछ अधिक एक सौ अध्ययन हैं । १०००० उद्देश, १०००० समुद्देश, ३६००० प्रश्नोत्तर और २२८००० पद परिमाण है ।