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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
संख्यात अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्याय हैं । परिमित त्रस, अनन्त स्थावर, शाश्वतकृत्-निवद्ध-निकाचित जिनप्रज्ञप्त भावों का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन तथा उपदर्शन किया गया है । व्याख्याप्रज्ञप्ति का अध्येता तदात्मरूप एवं ज्ञाता-विज्ञाता बन जाता है । इस प्रकार इसमें चरण-करण की प्ररूपणा की गई है ।
[१४४] भगवन् ! ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में क्या वर्णन है ? ज्ञाताधर्मकथा में ज्ञातों के नगरों, उद्यानों, चैत्यों, वनखण्डों व भगवान् के समवसरणों का तथा राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक और परलोक संबंधी ऋद्धि विशेष, भोगों का परित्याग, दीक्षा, पर्याय, श्रत का अध्ययन, उपधान-तप, संलेखना. भक्त-प्रत्याख्यान. पादपोपगमन. देवलोकगमन, पुनः उत्तमकुल में जन्म, पुनःसम्यक्त्व की प्राप्ति, तत्पश्चात् अन्तक्रिया कर मोक्ष की उपलब्धि इत्यादि विषयों का वर्णन है । धर्मकथा के दस वर्ग हैं और एक-एक धर्मकथा में पाँच-पाँच सौ आख्यायिकाएँ हैं । एक-एक आख्यायिका में पाँच-पाँच सौ उपाख्यायिकाएँ
और एक-एक उपाख्यायिका में पाँच-पाँच सौ आख्यायिका-उपाख्यायिकाएँ हैं । इस प्रकार पूर्वापर कुल साढ़े तीन करोड़ कथानक हैं । परिमित वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं । छठा अंग है । इसमें दो श्रुतस्कन्ध, १९ अध्ययन, १९ उद्देशनकाल, १९ समुद्देशनकाल तथा संख्यात सहस्रपद हैं । संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस और अनन्त स्थावर हैं । शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचि जिन-प्रतिपादित भाव, कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपणा, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन से स्पष्ट किए गए हैं । प्रस्तुत अङ्ग का पाठक तदात्मरूप, ज्ञाता
और विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार ज्ञाताधर्मकथा में चरण-करण की विशिष्ट प्ररूपणा की
[१४५] -वह उपासकदशा नामक अंग किस प्रकार का है ? उपासकदशा में श्रमणोपासकों के नगर, उद्यान, व्यन्तरायतन, वनखण्ड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक और परलोक की ऋद्धिविशेष, भोग-परित्याग, दीक्षा, संयम की पर्याय, श्रुत का अध्ययन, उपधानतप, शीलव्रत-गुणव्रत, विरमणव्रत-प्रत्याख्यान, पौषधोपवास का धारण करना, प्रतिमाओं का धारण करना, उपसर्ग, संलेखना, अनशन, पादपोपगमन, देवलोक-गमन, पुनः सुकुल में उत्पत्ति, पुनः बोधि-सम्यक्त्व का लाभ और अन्तक्रिया इत्यादि विषयों का वर्णन है । परिमित वाचनाएँ, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ (छन्द विशेष) संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संक्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं । यह सातवाँ अंग है । उसमें एक श्रुतस्कंध, दस अध्ययन, दस उद्देशनकाल और दस समुद्देशनकाल हैं । पद-परिमाण से संख्यात-सहस्र पद हैं । संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस तथा अनन्त स्थावर हैं । शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिन प्रतिपादित भावों का सामान्य और विशेष रूप से कथन, प्ररूपण, प्रदर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया है । इसका सम्यक्रूपेण अध्ययन करने वाला तद्प-आत्म ज्ञाता और विज्ञाता बन जाता है । उपासकदशांग में चरण-करण की प्ररूपणा की गई है ।
[१४६] -अन्तकृद्दशा-श्रुत किस प्रकार का है ? अन्तकृद्दशा में अन्तकृत् महापुरुषों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इस