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नन्दीसूत्र-६७
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या-संख्यातवें भाग को जानता है तो काल से भी आवलिका के असंख्यातवें या संख्यातवें भाग को जानता है । यदि अंगुलप्रमाण क्षेत्र देखे तो काल से आवलिका से कुछ कम देखे और यदि सम्पूर्ण आवलिका प्रमाण काल देखे तो क्षेत्र से अंगुलपृथक्त्व प्रमाण देखे ।
[६८] -यदि क्षेत्र से एक हस्तपर्यंत देखे तो काल से एक मुहूर्त से कुछ न्यून देखे और काल से दिन से कुछ कम देखे तो क्षेत्र से एक गव्यूति परिमाण देखता है । यदि ७त्र से योजन परिमाण देखता है तो काल से दिवस पृथक्त्व देखता है । यदि काल से किञ्चित् न्यून पक्ष देखे तो क्षेत्र से पच्चीस योजन पर्यन्त देखता है ।
[६९] यदि क्षेत्र से सम्पूर्ण भरतक्षेत्र को देखे तो काल से अर्धमास परिमित भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान, तीनों कालों को जाने । यदि क्षेत्र से जम्बूद्वीप पर्यन्त देखता है तो काल से एक मास से भी अधिक देखता है । यदि क्षेत्र से मनुष्यलोक परिमाण क्षेत्र देखे तो काल से एक वर्ष पर्यन्त भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल देखता है । यदि क्षेत्र से रुचक क्षेत्र पर्यन्त देखता है तो काल से पृथकत्व भूत और भविष्यत् काल को जानता है ।।
[७०] अवधिज्ञानी यदि काल से संख्यात काल को जाने तो क्षेत्र से भी संख्यात द्वीप-समुद्र पर्यन्त जानता है और असंख्यात काल जानने पर क्षेत्र से द्वीपों एवं समुद्रों की भजना जानना ।
[७१] काल की वृद्धि होने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारों की अवश्य वृद्धि होती है । क्षेत्र की वृद्धि होने पर काल की भजना है । द्रव्य और पर्याय की वृद्धि होने पर क्षेत्र और काल भजनीय होते हैं ।
[७२] काल सूक्ष्म होता है किन्तु क्षेत्र उससे भी सूक्ष्म होता है, क्योंकि एक अङ्गुल मात्र श्रेणी रूप क्षेत्र में आकाश के प्रदेश असंख्यात अवसर्पिणियों के समय जितने होते हैं ।
[७३] यह वर्द्धमानक अवधिज्ञान का वर्णन है ।
[७४] भगवन् ! हीयमान अवधिज्ञान किस प्रकार का है ? अप्रशस्त-विचारों में वर्तने वाले अविरति सम्यकदृष्टि जीव तथा अप्रशस्त अध्यवसाय में वर्तमान देशविरति और सर्वविरतिचारित्र वाला श्रावक या साधु जब अशुभ विचारों से संक्लेश को प्राप्त होता है तथा उसके चारित्र में संक्लेश होता है तब सब ओर से तथा सब प्रकार से अवधिज्ञान का पूर्व अवस्था से ह्रास होता है । इस प्रकार हानि को प्राप्त अवधिज्ञान हीयमान अवधिज्ञान हैं ।
[७६] अप्रतिपाति अवधिज्ञान क्या है ? जिस ज्ञान से ज्ञाता अलोक के एक भी आकाश-प्रदेश को जानता है-वह अप्रतिपाति अवधिज्ञान है ।
[७७] अवधिज्ञान संक्षिप्त में चार प्रकार का है । यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से | द्रव्य से-अवधिज्ञानी जघन्यतः अनन्त रूपी द्रव्यों को और है । उत्कृष्ट समस्त रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है । क्षेत्र से-अवधिज्ञानी जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र क्षेत्र को और उत्कृष्ट अलोक में लोकपरिमित असंख्यात खण्डों को जानता-देखता है । काल से-अवधिज्ञानी जघन्य-एक आवलिका के असंख्यातवें भाग काल को और उत्कृष्ट-अतीत
और अनागत-असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी परिमाण काल को जानता व देखता है । भाव से–अवधिज्ञानी जघन्यतः और उत्कृष्ट भी अनन्त भावों को जानता-देखता है । किन्तु सर्व भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता-देखता है ।