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उत्तराध्ययन-१२/३८२
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था, किन्तु मुनि ने मुझे मन से भी नहीं चाहा । मेरा परित्याग करने वाले यह ऋषि नरेन्द्रों
और देवेन्द्रों से भी पूजित हैं ।" - "ये वही उग्र तपस्वी, महात्मा, जितेन्द्रिय, संयमी और ब्रह्मचारी हैं, जिन्होंने स्वयं मेरे पिता राजा कौशलिक के द्वारा मुझे दिये जाने पर भी नहीं चाहा ।" - "ये ऋषि महान् यशस्वी, महानुभाग, घोरखती, घोर पराक्रमी हैं । ये अवहेलना के योग्य नहीं हैं । अतः इनकी अवहेलना मत करो । ऐसा न हो कि, अपने तेज से कहीं यह तुम सबको भस्म कर दें ।"
[३८३] उस के इन सुभाषित वचनों को सुनकर ऋषि की सेवा के लिए यक्ष कुमारों को रोकने लगे।
(३८४-३८७] आकाश में स्थित भयंकर रूप वाले असुरभावापन्न क्रुद्ध यक्ष उन को प्रताड़ित करने लगे । कुमारों को क्षत-विक्षत और खून की उल्टी करते देखकर भद्रा ने पुनः कहा-"जो भिक्षु का अपमान करते हैं, वे नखों से पर्वत खोदते हैं, दातों से लोहा चबाते हैं
और पैरों से अग्नि को कुचलते हैं ।" - "महर्षि आशीविष, घोर तपस्वी, घोखती, घोर पराक्रमी हैं । जो लोग भिक्षाकाल में मुनि को व्यथित करते हैं, वे पतंगों की भाँति अग्नि में गिरते हैं।" - "यदि तुम अपना जीवन और धन चाहते हो, तो सब मिलकर, नतमस्तक होकर, इनकी शरण लो । यह ऋषि कुपित होने पर समूचे विश्व को भी भस्म कर सकता है ।"
[३८८] मुनि को प्रताड़ित करने वाले छात्रों के सिर पीठ की ओर झुक गये थे । भुजाएँ फैल गई थीं । निश्चेष्ट हो गये थे । आंखें खुली ही रह गई थीं । मुंह से रुधिर निकलने लगा था । मुंह ऊपर को हो गये थे । जीभें और आंखें बाहर निकल आयी थीं ।
[३८९-३९०] इस प्रकार छात्रों को काठ की तरह निश्चेष्ट देख कर वह उदास और भयभीत ब्राह्मण अपनी पत्नी को साथ लेकर मुनि को प्रसन्न करने लगा-“भन्ते ! हमने तथा मूढ़ अज्ञानी बालकों ने आपकी जो अवहेलना की है, आप उन्हें क्षमा करें । ऋषिजन महान् प्रसन्नचित्त होते हैं, अतः वे किसी पर क्रोध नहीं करते हैं ।
.. [३९१] मुनि-“मेरे मन में न कोई द्वेष पहले था, न अब है, और न आगे होगा । यक्ष सेवा करते हैं, उन्होंने ही कुमारों को प्रताड़ित किया है ।" ।
[३९२-३९४] रुद्रदेव-धर्म और अर्थ को यथार्थ रूप से जाननेवाले भूतिप्रज्ञ आप क्रोध न करे । हम सब मिलकर आपके चरणों में आए हैं, शरण ले रहे हैं । “महाभाग ! हम आपकी अर्चना करते हैं । अब आप दधि आदि नाना व्यंजनों से मिश्रित शालिचावलों से निष्पन्न भोजन खाइए ।" – “यह हमारा प्रचुर अन्न है । हमारे अनुग्रहार्थ इसे स्वीकार करें ।" -पुरोहित के इस आग्रह पर महान् आत्मा मुनि ने स्वीकृति दी और एक मास की तपश्चर्या के पारणे के लिए आहार-पानी ग्रहण किया ।
[३९५-३९६] देवों ने वहाँ सुगन्धित जल, पुष्प एवं दिव्य धन की वर्षा को और दुन्दुभियाँ बजाईं, आकाश में 'अहो दानम्' का घोष किया । प्रत्यक्ष में तप की ही विशेषतामहिमा देखी जा रही है, जाति की नहीं । जिसकी ऐसी महान् चमत्कारी ऋद्धि है, वह हरिकेश मुनि-चाण्डाल पुत्र है ।
[३९७-३९८] मुनि-"ब्राह्मणो ! अग्नि का समारम्भ करते हुए क्या तुम बाहर से-जल से शुद्धि करना चाहते हो ? जो बाहर से शुद्धि को खोजते हैं उन्हें कुशल पुरुष सुदृष्ट नहीं