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उत्तराध्ययन-१९/६३३
में जाता है, वह व्याधि और रोगों से पीड़ित होता है, दुःखी होता है । "
[६३४-६३५] – “जो व्यक्ति पाथेय साथ में लेकर लम्बे मार्ग पर चलता है, वह चलते हुए भूख और प्यास के दुःख से रहित सुखी होता है ।" - " इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म करके परभव में जाता है, वह अल्पकर्मा वेदना से रहित सुखी होता है ।"
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[६३६ - ६३७] - जिस प्रकार घर को आग लगने पर गृहस्वामी मूल्यवान् सार वस्तुओं को निकालता है और मूल्यहीन असार वस्तुओं को छोड़ देता है" - "उसी प्रकार आपकी अनुमति पाकर जरा और मरण से जलते हुए इस लोक में सारभूत अपनी आत्मा को बाहर निकालूँगा ।”
[ ६३८] - माता-पिता ने उसे कहा - " पुत्र ! श्रामण्य - अत्यन्त दुष्कर है । भिक्षु को हजारों गुण धारण करने होते हैं ।”
[ ६३९] – “भिक्षु को जगत् में शत्रु और मित्र के प्रति, सभी जीवों के प्रति समभाव रखना होता है । जीवनपर्यन्त प्राणातिपात से निवृत्त होना भी बहुत दुष्कर है ।"
[ ६४०] - सदा अप्रमत्त भाव से मृषावाद का त्याग करना, हर क्षण सावधान रहते हुए हितकारी सत्य बोलना - बहुत कठिन होता है ।"
[६४१] – 'दन्तशोधन आदि भी बिना दिए न लेना और प्रदत्त वस्तु भी अनवद्य और एषणीय ही लेना अत्यन्त दुष्कर है ।"
[ ६४२ ] – “काम भोगों के रस से परिचित व्यक्ति के लिए अब्रह्मचर्य से विरक्ति और उग्र महाव्रत ब्रह्मचर्य का धारण करना बहुत दुष्कर है ।"
[६४३ ] – “धन-धान्य, प्रेष्यवर्ग, आदि परिग्रह का त्याग तथा सब प्रकार के आरम्भ और ममत्व का त्याग करना बहुत दुष्कर होता है ।"
[६४४] “ – अशन-पानादि चतुर्विध आहार का रात्रि में त्याग करना और कालमर्यादा से बाहर घृतादि संनिधि का संचय न करना अत्यन्त दुष्कर है ।"
[६४५ ] – “भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, डांस और मच्छरों का कष्ट, आक्रोश वचन, दुःख शय्या -कष्टप्रद स्थान, तृणस्पर्श तथा मैल - "
[६४६] –'ताड़ना, तर्जना, वध और बन्धन, भिक्षा-चर्या, याचना और अलाभ - इन परीषहों को सहन करना दुष्कर है ।"
[६४७] –“यह कापोतीवृत्ति समान दोषों से सशंक एवं सतर्क रहने की वृत्ति, दारुण केश- लोच और यह घोर ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना महान् आत्माओं के लिए भी दुष्कर है ।" [६४८] - " पुत्र ! तू सुख भोगने के योग्य है, सुकुमार है, सुमज्जित है-अतः श्रामण्य का पालन करने के लिए तू समर्थ नहीं है ।”
[ ६४९ ] – “पुत्र - साधुचर्या में जीवनपर्यन्त कहीं विश्राम नहीं है । लोहे के भार की तरह साधु के गुणों का वह महान् गुरुतर भार है, जिसे जीवनपर्यन्त वहन करना अत्यन्त कठिन है ।"
[६५०] –'' जैसे आकाश गंगा का स्रोत एवं प्रतिस्रोत दुस्तर है । सागर को भुजाओं से तैरना दुष्कर है, वैसे ही संयम के सागर को तैरना दुष्कर है ।"
[६५१ ] – “संयम बालू रेत के कवल की तरह स्वाद से रहित है . तप का आचरण