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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
महामुनि हो गया था । एक दिन ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ वाराणसी पहुँच गया । वाराणसी के बाहर मनोरम उद्यान में प्रासुक शय्या और संस्तारक लेकर ठहर गया ।
[९६६-९६७] उसी समय उस पुरी में वेदों का ज्ञाता, विजयघोष नाम का ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था । एक मास की तपश्चर्या के पारणा के समय भिक्षा के लिए वह जयघोष मुनि विजयघोष के यज्ञ में उपस्थित हुआ ।
[९६८-९७०] यज्ञकर्ता ब्राह्मण भिक्षा के लिए उपस्थित हुए मुनि को इन्कार करता है-“मैं तुम्हें भिक्षा नहीं दूंगा । भिक्षु ! अन्यत्र याचना करो ।" जो वेदों के ज्ञाता विप्र-ब्राह्मण हैं, यज्ञ करने वाले द्विज हैं और ज्योतिष के अंगों के ज्ञाता हैं एवं धर्मशास्त्रों के पारगामी हैं“अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, भिक्षु ! यह सर्वकामिक एवं सब को अभीष्ट अन्न उन्हीं को देना है ।"
[९७१-९७२] वहाँ इस प्रकार याजक के द्वारा इन्कार किए जाने पर उत्तम अर्थ की खोज करनेवाला वह महामुनि न क्रुद्ध हुआ, न प्रसन्न हुआ । न अन्न के लिए, न जल के लिए, न जीवन-निर्वाह के लिए, किन्तु उनके विमोक्षण के लिए मुनि ने कहा
[९७३-९७४] "तू वेद के मुख को नहीं जानता है और न यज्ञों का, नक्षत्रों और धर्मों का जो मुख है, उसे ही जानता है ।" "जो अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, उन्हें भी तू नहीं जानता है । यदि जानता है, तो बता ।"
[९७५-९७७] उसके आक्षेपों का अर्थात् उत्तर देने में असमर्थ ब्राह्मण ने अपनी समग्र परिषदा के साथ हाथ जोड़कर उस महामुनि से पूछा-“तुम कहो-वेदों का मुख क्या है ? यज्ञों का, नक्षत्रों का और धर्मों का जो मुख है, उसे भी कहिए।"-"और अपना तथा दूसरों का उद्धार करने में जो समर्थ हैं, वे भी बतलाओ । मुझे यह सब संशय है । साधु ! मैं पूछता हूँ, आप बताइए ।"
१९७८-९७९] जयघोष मुनि-"वेदों का मुख अग्नि-होत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्र है और धर्मों का मुख काश्यप (ऋषभदेव) है ।" - "जैसे उत्तम एवं मनोहारी ग्रह आदि हाथ जोड़कर चन्द्र की वन्दना तथा नमस्कार करते हुए स्थित है, वैसे ही भगवान् ऋषभदेव हैं ।"
[९८०] “विद्या ब्राह्मण की सम्पदा है, यज्ञवादी इससे अनभिज्ञ हैं, वे बाहर में स्वाध्याय और तप से वैसे ही आच्छादित हैं, जैसे कि अग्नि राख से ढंकी हुई होती है ।"
[९८१] –“जिसे लोक में कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण कहा है, जो अग्नि के समान सदा पूजनीय है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।"
[९८२] -"जो प्रिय स्वजनादि के आने पर आसक्त नहीं होता और न जाने पर शोक करता है । जो आर्य-वचन में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।"
[९८३] “कसौटी पर कसे हुए और अग्नि के द्वारा दग्धमल हुए जातरूप-सोने की तरह जो विशुद्ध है, जो राग से, द्वेष से और भय से मुक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।"
[९८४] -"जो तपस्वी है, कृश है, दान्त है, जिसका मांस और रक्त अपचित हो गया है । जो सुव्रत है, शांत है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।"
[९८५] –“जो वस और स्थावर जीवों को सम्यक् प्रकार से जानकर उनकी मन,