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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
(अध्ययन-२८-मोक्षमार्गगति) [१०७६] ज्ञानादि चार कारणों से युक्त, ज्ञानदर्शन लक्षण स्वरूप, जिनभाषित, सम्यक् मोक्ष-मार्ग की गति को सुनो ।
[१०७७-१०७८] वरदर्शी जिनवरों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बतलाया है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र औरतप के मार्ग पर आरूढ हुए जीव सद्गति को प्राप्त करते हैं ।
[१०७९-१०८०] उन में ज्ञान पांच प्रचार का है-श्रुत ज्ञान, आभिनिबोधिक ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनोज्ञान और केवल ज्ञान । यह पाँच प्रकार का ज्ञान सब द्रव्य, गुण और पर्यायों का ज्ञान है, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है .
[१०८१] द्रव्य गुणों का आश्रय है, जो प्रत्येक द्रव्य के आश्रित रहते है, वे गुण होते हैं । पर्यायों का लक्षण द्रव्य और गुणों के आश्रित रहना है ।
[१०८२] वरदर्शी जिनवरों ने धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-यह छह द्रव्यात्मक लोक कहा है ।
[१०८३] धर्म, अधर्म और आकाश-ये तीनों द्रव्य संख्या में एक-एक हैं । काल, पुद्गल और जीव-ये तीनों द्रव्य अनन्त-अनन्त हैं ।
[१०८४-१०८५] गति धर्म का लक्षण है, स्थिति अधर्म का लक्षण है, सभी द्रव्यों का भाजन अवगाहलक्षण आकाश है । वर्तना काल का लक्षण है । उपयोग जीव का लक्षण है, जो ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख से पहचाना जाता है ।।
[१०८६-१०८८] ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग-ये जीव के लक्षण हैं । शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श-ये पुद्गल के लक्षण हैं । एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभाग-ये पर्यायों के लक्षण हैं .
[१०८९-१०९०] जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नौ तत्त्व हैं । इन तथ्यस्वरूप भावों के सद्भाव के निरूपण में जो भावपूर्वक श्रद्धा है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं ।
[१०९१] सम्यक्त्व के दस प्रकार हैं-निसर्गरुचि, उपदेश-रुचि, आज्ञा-रुचि, सूत्ररुचि, बीज-रुचि, अभिगम-रुचि, विस्तार-रुचि, क्रिया-रुचि, संक्षेप-रुचि और धर्म-रुचि ।
[१०९२-१०९३] परोपदेश के बिना स्वयं के ही यथार्थ बोध से अवगत जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव और संवर आदि तत्त्वों की जो रुचि है, वह 'निसर्ग रुचि' है । जिन दृष्ट भावों में, तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विशिष्ट पदार्थों के विषय में-'यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है'-ऐसी जो स्वतः स्फूर्त श्रद्धा है, वह 'निसर्गरुचि' है ।
[१०९४] जो अन्य छद्मस्थ अथवा अर्हत् के उपदेश से जीवादि भावों में श्रद्धान् करता है, वह 'उपदेशरुचि' जानना ।
[१०९५] राग, द्वेष, मोह और अज्ञान जिसके दूर हो गये हैं, उसकी आज्ञा में रुचि रखना, 'आज्ञा रुचि' है ।
[१०९६] जो अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत का अवगाहन करता हुआ श्रुत से