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उत्तराध्ययन-३२/१२४९
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रखना, यह दुःखों से मुक्ति का उपाय है ।
[१२५०] अगर श्रमण तपस्वी समाधि की आकांक्षा रखता है तो वह परिमित और एषणीय आहार की इच्छा करे, तत्त्वार्थो को जानने में निपुण बुद्धिवाला साथी खोजे तथा स्त्री आदि से विवेक के योग्य एकान्त घर में निवास करे ।
[१२५१] यदि अपने से अधिक गुणों वाला अथवा अपने समान गुणों वाला निपुण साथी न मिले, तो पापों का वर्जन करता हुआ तथा काम-भोगों में अनासक्त रहता हुआ अकेला ही विचरण करे ।
[१२५२] जिस प्रकार अण्डे से बलाका पैदा होती है और बलाका से अण्डा उत्पन्न होता है, उसी प्रकार मोह का जन्म-स्थान तृष्णा है, और तृष्णा का जन्म-स्थान मोह है ।
[१२५३] कर्म के बीज राग और द्वेष हैं । कर्म मोह से उत्पन्न होता है । वह कर्म जन्म और मरण का मूल है और जन्म एवं मरण ही दुःख है ।।
[१२५४] उसने दुःख को समाप्त कर दिया है, जिसे मोह नहीं है । उसने मोह को मिटा दिया है, जिसे तृष्णा नहीं है । उसने तृ,णा का नाश कर दिया है, जिसे लोभ नहीं है । उसने लोभ को समाप्त कर दिया है, जिसके पास कुछ भी परिग्रह नहीं है ।।
[१२५५] जो राग, द्वेष और मोह का मूल से उन्मूलन चाहता है, उसे जिन-जिन उपायों को उपयोग में लाना चाहिए, उन्हें मैं क्रमशः कहूँगा ।
[१२५६] रसों का उपयोग प्रकाम नहीं करना । रस प्रायः मनुष्य के लिए दप्तिकर होते हैं । विषयासक्त मनुष्य को काम वैसे ही उत्पीड़ित करते हैं, जैसे स्वादुफल वाले वृक्ष को पक्षी ।
[१२५७] जैसे प्रचण्ड पवन के साथ प्रचुर ईन्धन वाले वन में लगा दावानल शान्त नहीं होता है, उसी प्रकार प्रकामभोजी की इन्द्रियाग्नि शान्त नहीं होती । ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कभी भी हितकर नहीं है ।
[१२५८] जो विविक्त शय्यासन से यंत्रित हैं, अल्पभोजी हैं, जितेन्द्रिय हैं, उनके चित्त को रागद्वेष पराजित नहीं कर सकते हैं, जैसे औषधि से पराजित व्याधि पुनः शरीर को आक्रान्त नहीं करती है ।
[१२५९] जिस प्रकार बिडालों के निवास स्थान के पास चूहों का रहना प्रशस्त नहीं है, उसी प्रकार स्त्रियों के निवास-स्थान के पास ब्रह्मचारी का रहना भी प्रशस्त नहीं है ।
[१२६०-१२६१] श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, आलाप, इंगित और कटाक्ष को मन में निविष्ट कर देखने का प्रयत्न न करे । जो सदा ब्रह्मचर्य में लीन हैं, उनके लिए स्त्रियों का अवलोकन, उनकी इच्छा, चिन्तन और वर्णन न करना हितकर है, तथा सम्यक् ध्यान साधना के लिए उपयुक्त है ।
[१२६२] यद्यपि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनि को अलंकृत देवियाँ भी विचलित नहीं कर सकती, तथापि एकान्त हित की दृष्टि से मुनि के लिए विविक्तवास ही प्रशस्त है ।
[१२६३] मोक्षाभिकांक्षी, संसारभीरु और धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में ऐसा कुछ भी दुस्तर नहीं है, जैसे कि अज्ञानियों के मन को हरण करने वाली स्त्रियाँ दुस्तर हैं ।
[१२६४] स्त्री-विषयक इन उपर्युक्त संसर्गों का सम्यक् अतिक्रमण करने पर शेष