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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति है, और उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त-अधिक तेतीस सागर है ।
[१४३८-१४३९] कृष्ण, नील और कापोत-ये तीनों अधर्म लेश्याएँ हैं । इन तीनों से जीव अनेक बार दुर्गति को प्राप्त होता है । तेजो-लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ललेश्या ये तीनों धर्म लेश्याएँ हैं । इन तीनों से जीव अनेक बार सुगति को प्राप्त होता है ।।
[१४४०-१४४२० प्रथम समय में परिणत सभी लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता । अन्तिम समय में परिणत सभी लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता । लेश्याओं को परिणति होने पर अन्तर् मुहूर्त व्यतीत हो जाता है और जब अन्तर्मुहर्त शेष रहता है, उस समय जीव परलोक में जाते हैं ।
[१४४३] अतः लेश्याओं के अनुभाग को जानकर अप्रशस्त लेश्याओं का परित्याग कर प्रशस्त लेश्याओं में अधिष्ठित होना चाहिए । -ऐसा मैं कहता हूँ ।
(अध्ययन-३५-अनगारमार्गगति) [१४४४] मुझ से ज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट मार्ग को एकाग्र मन से सुनो, जिसका आचरण कर भिक्षु दुःखों का अन्त करता है ।
[१४४५] गृहवास का परित्याग कर प्रव्रजित हुआ मुनि, इन संगों को जाने, जिनमें मनुष्य आसक्त होते हैं ।
[१४४६] संयत भिक्षु हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, इच्छा-काम और लोभ से दूर रहे |
[१४४७-१४४८] मनोहर चित्रों से युक्त, माल्य और धूप से सुवासित, किवाड़ों तथा सफेद चंदोवा से युक्त-ऐसे चित्ताकर्षक स्थान की मन से भी इच्छा न करे । काम-राग को बढ़ाने वाले इस प्रकार के उपाश्रय में इन्द्रियों का निरोध करना भिक्षु के लिए दुष्कर है ।
[१४४९-१४५०] अतः एकाकी भिक्षु श्मशान में, शून्य गृह में, वृक्ष के नीचे तथा परकृत एकान्त स्थान में रहने की अभिरुचि रखे । परम संयत भिक्षु प्रासुक, अनावाध, स्त्रियों के उपद्रव से रहित स्थान में रहने का संकल्प करे ।।
[१४५१-१४५२] भिक्षु न स्वयं घर बनाए और न दूसरों से बनवाए । चूँकि गृहकर्म के समारंभ में प्राणियों का वध देखा जाता है । त्रस और स्थावर तथा सूक्ष्म और बादर जीवों का वध होता है, अतः संयत भिक्षु गृह-कर्म के समारंभ का परित्याग करे ।
[१४५३-१४५४] इसी प्रकार भक्त-पान पकाने और पकवाने में हिंसा होती है । अतः प्राण और भूत जीवों की दया के लिए न स्वयं पकाए न दूसरे से पकवाए । भक्त और पान के पकाने में जल, धान्य, पृथ्वी और काष्ठ के आश्रित जीवों का वध होता है-अतः भिक्षु न पकवाए ।
[१४५५] अग्नि के समान दूसरा शस्त्र नहीं है, वह सभी ओर से प्राणिनाशक तीक्ष्ण धार से युक्त है, बहुत अधिक प्राणियों की विनाशक है, अतः भिक्षु अग्नि न जलाए ।
[१४५६-१४५८] क्रय-विक्रय से विरक्त भिक्षु सुवर्ण और मिट्टी को समान समझनेवाला है, अतः वह सोने और चाँदी की मन से भी इच्छा न करे । वस्तु को खरीदने वाला क्रयिक