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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
सम्बन्धों का अतिक्रमण वैसे ही सुखोत्तर हो जाता है, जैसे कि महासागर को तैरने के बाद गंगा जैसी नदियों को तैर जाना आसान है ।
[१२६५-१२६६] समस्त लोक के, यहाँ तक कि देवताओं के भी, जो कुछ भी शारीरिक और मानसिक दुःख हैं, वे सब कामासक्ति से पैदा होते हैं । वीतराग आत्मा ही उन दुःखों का अन्त कर पाते हैं । जैसे किंपाक फल रस और रूप-रंग की दृष्टि से देखने और खाने में मनोरम होते हैं, किन्तु परिणाम में जीवन का अन्त कर देते हैं, काम-गुण भी अन्तिम परिणाम में ऐसे ही होते हैं ।
[१२६७] समाधि की भावनावाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के शब्द-रूपादि मनोज्ञ विषयों में रागभाव न करे और इन्द्रियों के अमनोज्ञ विषयों में मन से भी द्वेषभाव न करे ।
[१२६८-१२६९] चक्षु का ग्रहण रूप है । जो रूप राग का कारण होता है, उसे मनोज्ञ कहते हैं र जो रूप द्वेप का कारण होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं । इन दोनों में जो सम रहता है, वह वीतराग है । चक्षु रूप का ग्रहण है । रूप चक्षु का ग्राह्य विषय है । जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं ।
[१२७०-१२७१]जो मनोज्ञरूपों में तीव्र रूप से गृद्धि । आसक्ति रखता है, वह रागातुर अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है । जैसे प्रकाश-लोलुप पतंगा प्रकाश के रूप में आसक्त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है । जो अमनोज्ञ रूप के प्रति तीव्र रूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त (दुर्दम) द्वेष से दुःख को प्राप्त होता है । इसमें रूप का कोई अपराध नहीं है ।
[१२७२] जो सुन्दर रूप में एकान्त आसक्त होता है और अतादृश में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है । विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता है ।
[१२७३] मनोज्ञ रूप की आशा का अनुगमन करनेवाला व्यक्ति अनेकरूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । अपने प्रयोजन को ही अधिक महत्त्व देने वाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हीं परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है ।
[१२७४] रूप में अनुपात और परिग्रह के कारण रूप के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती ।
[१२७५] रूप में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति सन्तोष को प्राप्त नहीं होता । वह असंतोष के दोष से दुःखी एवं लोभ से आविल व्यक्ति दूसरों की वस्तुएँ चुराता है ।
[१२७६] रूप और परिग्रह में अतृप्त तथा तृष्णा से अभिभूत होकर वह दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है । लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है । परन्तु कपट और झूठ का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता है ।
[१२७७] झूठ बोलने के पहले, उसके पश्चात् और बोलने के समय में भी वह दुःखी होता है । उसका अन्त भी दुःखरूप होता है । इस प्रकार रूप से अतृप्त होकर वह चोरी करने वाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है ।
[१२७८] इस प्रकार रूप में अनुरक्त मनुष्य को कहाँ, कब और कितना सुख होगा?